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________________ श्रावकाचार-संग्रह अज्ञातफलमद्यानो नाऽशोधितफलानि च । शिम्बीवल्लादिकान्येषु नो पञ्चोदुम्बरव्रती ॥१५१ मद्यादिस्पृष्टभाण्डेषु पतितं भोजनादिकम् । नाद्यात्तद्विक्रियादीनि न कुर्यात्तद्व्रतान्वितः ॥ १५२ मद्यादिभक्षिकानारीनं रमेत च तद्वृती । तद्भक्ष्यकृन्नरादीनां स्पर्शने भोजनं त्यजेत् ॥१५३ अन्येऽपि ये त्वतीचारा मद्यादीनां जिनागमे । गुरूपदेशतो ज्ञात्वा त्याज्यास्तेऽपि मनीषिभिः ॥१५४ आप्तपश्ञ्चनुतिर्जीवदया सलिलगालनम् । त्रिमद्यादिनिशा हा रोदुम्बराणां च वर्जनम् ॥१५५ अष्टौ मूलगुणानेतान्केचिदाहुर्मुनीश्वराः । तत्पालने भवत्येष मूलगुणव्रतान्वितः ॥ १५६ द्विमुहूर्तात्परं वार्यगालनं गालनव्रते । कुवस्त्रगालनं नाऽच्यः शिष्टन्यासोऽपरत्र च ॥ १५७ विवाद्यन्त्ये मुहूर्त्तेऽपि रात्रिभोजनर्वाजनः । रोगच्छेदे घृताम्रादिभक्षणे तस्य दुष्यति ॥ १५८ द्यूतक्रीडा पलं मद्याऽऽखेटस्तेयपर स्त्रियः । वेश्येति व्यसनान्याहुर्दुःखदानीह योगिनः ॥ १५९ द्यूतान्राज्यविमुक्तोऽभूद्विख्यातो धर्मनन्दनः । पलाद्व कनृपोऽधोऽगाद्यादवा मद्यतः क्षताः ॥ १६० ब्रह्मदत्तोऽभवद दुःखी मज्जित्वाऽऽखेटतोऽर्णवे । भूत्वाहिः पतितो वह्नौ स्तेयाच्छ्रीभूतिवाडवः ॥१६१ ११८ दुम्बर फलके त्यागी हैं उन्हें अजान फल नहीं खाने चाहिये । तथा उसी तरह नहीं शोधे हुए (नहीं बिदारे हुए) सुपारी आदि फल, शिम्बीफल, वल्ला आदि फल नहीं खाने चाहिये ॥ १५१ ॥ जिन पुरुषों को मदिरा, मांस, मधु आदि पदार्थोंका त्याग है उन्हें मदिरा आदि अपवित्र पदार्थोंके स्पर्श वाले बरतनोंमें रखा हुआ भोजन नहीं करना चाहिये और न इन वस्तुओं का व्यापार करना चाहिये ॥ १५२ ॥ मद्य मांसादिकी खाने वाली स्त्रियोंके साथ मदिरा आदि पदार्थों के छोड़ने वाले पुरुषोंको विषय सेवन नहीं करना चाहिये । तथा मदिरा मांसादि खाने वाले पुरुष यदि भोजनका स्पर्श कर ले तो उसी समय भोजन छोड़ देना चाहिये || १५३॥ मद्य मांसादिके इनके सिवाय और भी अतिचार जिन भगवान्ने कहे हैं उन्हें गुरुपरम्पराके उपदेशसे समझ कर त्यागना चाहिये ॥ १५४॥ देववन्दना, जीवोंकी दया पालना, जलका छानना, मदिराका त्याग, मांसका त्याग, मधुका त्याग, रात्रि भोजनका त्याग तथा पाँच उदुम्बर फलका त्याग ये भी आठ मूल गुण हैं || १५५ ॥ कितने ही मुनीश्वर ये उक्त आठ मूल गुण कहते हैं और इन्हीं का पालन करनेवाला मूल गुणोंसे युक्त कहा जाता है ॥ १५६ ॥ दो मुहूर्त्तके बाद जलका नहीं छानना, मलिन वस्त्रसे जलका छानना, जिस छन्नेसे जल छाना गया था उसके बाकीके जल ( जिवाणी ) को पृथ्वी आदिके ऊपर डाल देना अथवा जिस जलाशयका वह जल है उसकी जिवाणीको उसी जलाशयमें न डाल कर किसी दूसरे स्थान पर डाल देना ये जल गालनव्रतके अतीचार हैं || १५७|| जिन पुरुषोंके रात में भोजन करनेका त्याग है उन्हें दिनके पहले मुहूर्त्त में और अन्तके मुहूर्त में रोगादिकोंके दूर करनेके लिये भी घृत आम आदि वस्तुओंका भक्षण नहीं करना चाहिये क्योंकि उस समय इन वस्तुओंका भक्षण रात्रिभोजन त्याग व्रतमें दोषका उत्पन्न करनेवाला है || १५८ ॥ जुआ का खेलना, मांसका खाना, मद्यका पीना, शिकारका खेलना, चोरीका करना, परस्त्रीका सेवन करना और वेश्याका सेवन करना ये सातों व्यसन दुःखोंके देनेवाले हैं ऐसा मुनिलोग कहते हैं || १५९|| जूआके खेलनेसे युधिष्ठिर महाराजको अपने राज्यसे भ्रष्ट होना पड़ा। मांस के खानेसे बक नामक राजाको नरकका वास भोगना पड़ा । मदिराके पीनेसे यादव लोग नष्ट हुए ॥ १६० ॥ शिकारके खेलनेसे ब्रह्मदत्त समुद्रमें डूबकर अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगने वाला बना | चोरीके करनेसे शिवभूति ब्राह्मण सर्प होकर अग्निमें गिरा || १६१|| परस्त्रीके दोषसे तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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