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________________ श्रावकाचार-संग्रह यः सुषेणचरो भौमो निदानी वर्ततेऽमरः । कोणिकाख्याङ्गजस्ते द्विट् चेलनाया भविष्यति ॥१२९ सामर्थ्य प्राप्य राज्यं ते स ग्रहीता प्रतापिकः । शस्त्रपञ्जरमध्ये च क्षिप्त्वा त्वां मारयिष्यति ॥१३० ततस्त्वं याष्यसि श्वभ्रमाद्यं सीमन्तसंज्ञकम् । भुक्त्वा दुःखं कियत्कालमत्राद्यो भविता जिनः ॥१३१ इति श्रुत्वा नराधीशो भूतभाविभवावलोम् । आत्मीयां सम्मदाश्रणि मुमोचेति वितर्कयन् ॥१३२ जीवस्त्वनाद्यपेक्षातो नरकेऽनन्तशो गतः । बहुदुःखप्रदे पापानमहारौरवनामनि ॥१३३ स धन्यो नरकावासो यस्मान्निगत्य तीर्थकत् । भविष्यामि शिरोधात इवाऽन्धस्य निधानदृक् ॥१३४ भिल्लः खविरसारख्यः सौधर्मे विबुधस्ततः। सुमित्रनपतिर्भीमः श्रेणिको नारको जिनः ॥१३५ सूरवीराभिधानेशः सौधर्मप्रभवोऽमरः । मंत्रिपुत्रः सुषेणाऽऽख्यो व्यन्तरः कोणिको नृपः ॥१३६ इति पिशितनिवृत्तिफलं निवेदितं तव पुरः समासेन । अधुना मधुनादृत्यं यथा तथा शृणु नराधीश ॥१३७ मक्षिकाबालकाण्डोत्थमत्युच्छिष्टं मलाविलम् । सूक्ष्मजन्तुगणाकोणं तन्मधु स्यात्कथं वरम् ॥१३८ ग्रामान्द्वादश कोपेन यो दहेदिति लौकिकम् । ततोऽधिकतरः पापः स यो हन्त्यत्र माक्षिकम् ॥१३९ सूरवीरने वटवृक्षके नीचे जो रोती हुई उस यक्षिणीको देखी थी । हे राजन् ! उसे क्रमसे यहां उत्पन्न हुई चेलना नामकी अपनी रानी समझो ॥१२८॥ और निदानका करनेवाला वह सुषेण मुनि जो इस समय व्यन्तर देव है वही तुम्हारा कोणिक नामक पुत्र होगा। परन्तु वास्तवमें उसे तुम अपना शत्रु समझो ॥१२९।। तुम्हारे राज्यका ग्रहण करनेवाला और प्रतापवान् वह कोणिक, राज्य सामर्थ्यको पाकर तुम्हें शस्त्रोंके पीजरेमें बन्द करके मारेगा ॥१३०।। इसके बाद मरकर तुम सीमन्त नामक पहले नरकमें जाओगे। कितने काल पर्यन्त नरकोंके दुःखोंको भोगकर इसी भरत क्षेत्रमें पहले महापद्म नामक तीर्थकर होओगे ॥१३१॥ महाराज श्रेणिक इस तरह अपनी बीती हुई और आगे होनेवाली संसार परम्पराको सुनकर नेत्रोंसे आनन्दाश्रु छोड़ते हुए यों विचारने लगे ॥१३२।। यह जीव अनादि कालकी अपेक्षासे पाप कर्मोंके उदयसे घोर दुःखोंके देनेवाले नरकमें अनन्त बार गया है। और वहाँ असह्य दुःखोंको भोगे है ।।१३३॥ वह नरकमें भी जाना अच्छा है जहाँसे निकल कर तीर्थंकर होऊंगा। यह तो यों समझना चाहिये कि किसी अन्धेके मस्तकमें एक ओरसे चोट लगी और दूसरी ओर उसे खजाना दीख गया ॥१३४॥ जो खदिरसार भिल्ल था वह सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ, इसके बाद सुमित्र नामक राजा हुआ, पश्चात् व्यन्तर देव हुआ फिर तुम श्रेणिक हुए हो । अब यहाँसे प्रथम नरकमें उत्पन्न होओगे और वहाँसे प्रथम तीर्थंकर होओगे ॥१३५।। जो सूरवीर था वह पहले तो व्रतके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ वहाँसे निकल कर सुषेण नाम मंत्रिपुत्र हुआ। सुषेण इसो पर्यायमें मुनि होकर निदानके फलसे व्यन्तर देव हुआ। वहाँसे आकर कोणिक राजा हुआ है ।।१३६।। हे राजन् । इस. प्रकार मांसके त्यागनेसे जो फल हुआ उसे संक्षेपसे तुम्हारे सामने हमने कहा। इस समय जिस प्रकार मधुके छोड़नेमें प्रवृति हो उसी प्रकार मधुके दोषोंका वर्णन किया जाता है ॥१३७।। जो मधु मक्खियोंके छोटे-छोटे बच्चोंसे उत्पन्न होता है, जो एक तरहसे जीवोंका उच्छिष्ट है, जो मलादि अपवित्र पदार्थोंसे युक्त होता है, और जिसमें जन्तुओंके समूहके समूह रहते हैं वह मधु भक्षणके योग्य कैसे हो सकता है ? ॥१३८॥ यह लौकिक कहावत है-जो क्रोधसे बारह ग्रामोंको जलावे, कहीं उससे भी अधिक पाप उन्हें लगता है जो पुरुष मक्षिकाओंके स्थानका घात करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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