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________________ धर्मसंग्रह प्रावकाचार व्याघुटन्तं तमालोक्य प्रोवाचाऽध्वनि कश्चन । हा हा किं कृतमेतेन राज्ञा नाऽस्येदृशं हितम् ॥११८ राज्यचिन्ताऽऽकुलो राजा स्वयं दत्त न भोजनम् । अस्मै निवारिताः सर्वे नागरा ददतोऽपि च ॥११९ इति श्रुत्वा वचस्तस्य तपःक्षीणो व्रती पथि । क्रोधेन कम्पमानाङ्गः सहसा स्खलितस्तदा ॥१२० मारयेयं पुरो भूपं यद्यस्ति तपसः फलम् । कृत्वा निदानमीदृक्ष मृत्वाऽसौ व्यन्तरोऽभवत् ॥१२१ महाफलं तपः कृत्वा निदानं योऽकरोन्मुनिः । तुषखण्डेन विक्रीतं रत्नं तेन जडात्मना ॥१२२ श्रुत्वा कोलाहलं राजा तदा नागरिकैः कृतम् । मुमुक्षोभृतिमाखुध्येत्यात्मानं निन्दति स्म सः ॥१२३ मुनिदानं मया हा ! हा ! विस्मृतं राज्यचिन्तया। पापात्मना जना अन्ये निषिद्धा हन्त किं कृतम् ॥१२४ तपो विना कथं पापं क्षपाम्येतद्विचिन्तयन् । राज्यं त्यक्त्वा तपोऽग्राहि तेन जैन महात्मना ॥१२५ कियत्कालं तपः कृत्वा सोढ्वाऽनेकपरीषहान् । मृत्वा व्यन्तर राजोऽभूत्पाकतो निजकर्मणः ॥१२६ आयुरन्ते ततश्चयुत्वा हयुपश्रेणिकभूपतेः । इन्द्राण्याश्च सुतोऽभूस्त्वं श्रेणिकः साम्प्रतं नृपः ॥१२७ सूरवीरेण या दृष्टा रुदन्ती यक्षिका वटे । क्रमशश्वेलनां विद्धि तां जातां निजभामिनीम ॥१२८ लौट रहे हैं तब कितने लोग मार्गमें यों कहने लगे । हाय ! हाय ! इस राजाने क्या अनर्थ किया जो ऐसे कठिन तप करनेवाले मुनिके लिए न तो आप आहार देता है और न दूसरे लोगोंको देने देता है । क्या यह बात इसके लिए योग्य है ? ॥११८॥ राज्यकी चिन्ताओंसे आकुल होकर न तो आप मुनिराजको आहार देता है और जो विचारे पुरवासी लोग देना चाहते हैं उन्हें भी मना कर दिया है ॥११९॥ तपसे अत्यन्त कृश शरीरको धारण करनेवाले उन मुनिने जब मार्गमें लोगोंके ऐसे वचनोंको सुना, तब उसी समय उनका शरीर क्रोघसे धूझने लगा और वे शीघ्र ही पृथ्वी पर गिर पड़े ॥१२०।। पृथ्वीपर गिरते ही मनि बोले कि यदि तपका कुछ भी फल है तो अगले भवमें इस राजाको मारूँ। इस प्रकार अपने आत्मस्वभावको घात करनेवाले निदानको करके मरे और मरकर व्यन्तर देव हुए ॥१२१।। बहुत फलको देनेवाले तपको करके सुषेण मुनिने जो निदान किया, समझो कि उस दुर्बुद्धिने तुषखंडको लेकर रत्नको बेंच दिया ॥१२२।। मुनिके मरनेका पुरवासी लोगोंमें बड़ा कोलाहल हुआ। उसके सुननेसे राजाको मालूम हुआ कि मेरे आहारके न देनेसे मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनिराजकी मृत्यु हो गई है। ऐसा समझकर राजाने अपने आत्माकी बहृत निन्दा की ॥१२३।। हाय ! हाय !! मुझ पापीने बड़ा अनर्थ किया जो राज्य सम्बन्धी कार्यमें फंसकर मनिराजको दान देना भूल गया। इतना ही नहीं, किन्तु जो लोग बिचारे आहार देना चाहते थे उन्हें भी मैंने मना कर दिया। हाय ! हाय ! यह मैंने क्या अनर्थ किया है ।।१२४।। महाराज सुमित्रने इस महापापके घोर फलसे भयभीत होकर सोचा कि इस पापको तपके विना कभी नाश नहीं कर सकता, ऐसा विचार करके उसी समय महात्मा सुमित्रने सम्पूर्ण राज्यभारको छोड़कर जिन भगवान्के शासनके अनुसार तपको ग्रहण किया ॥१२५।। मुनिराज सुभित्र कितने काल पर्यन्त घोर तपश्चरण करके और अनेक दुःसह परीषहोंको शान्त भावसे सहन करके इस विनश्वर शरीरको छोड़कर अपने किये हुए कर्मोंके फलसे व्यन्तर देवोंके इन्द्र हुए ॥१२६॥ आयुके पूर्ण होनेपर व्यन्तर पर्यायसे निकलकर उपश्रेणिक राजा और उसकी इन्द्राणी नामकी राणीके श्रेणिक नामक तूं पुत्र हुआ है और इस समय राजा है ॥१२७॥ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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