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धर्मसंग्रह श्रावकाचार
१०९ आसीत्खदिरसाराख्यः किरातो विन्ध्यकानने । समाधिगुप्तिनामानं मुनि दृष्ट्वा ननाम सः ॥५२ मुनिनोचे तदा भिल्लो धर्मलाभोऽस्तु ते वर । को धर्मस्तस्य लाभः कः पृष्टस्तेन पुनर्मुनिः ॥५३ धर्मो मांसादिनिर्वृत्तिस्तत्प्राप्तिाभ उच्यते । ततः स्वर्गादिजं सौख्यं प्राप्यते हेलया नरैः॥५४ निशम्याचिन्तयद् भिल्लो नालं तन्मोक्तुमस्म्यहम् । क्रियते किं ? तदाऽऽकूतं मत्वेत्यूचे स भिक्षुणा ॥५५ काकमांलं त्वया पूर्व भक्षितं वत्स ! वा न वा । अद्य यावन्न मे भुक्तं तद्वतं तर्हि गृह्यताम् ॥५६ यत्किञ्चिन्मुच ते वस्तु तत्तन्नियमपूर्वकम् । यदा तदा भवेद्धर्मो न धर्मो नियम विना ||५७ अनुक्ता नैव लभ्येत धने दत्तेऽपि कस्यचित् । धनं दत्वा निजं वृद्धिर्वणिग्भिः किन्न तूच्यते ॥५८ इति लात्वा व्रतं तस्य प्रणम्य स्वगृहं गतः । कालान्तरे समुत्पन्नस्तस्य रोगोऽतिदुःसहः ॥५९ कुटुम्नेन तदाऽऽहतो भिषग्विज्ञाय तद्रजम् । तेनोक्तं काकमांसेन विना रोगो न शाम्यति ॥६० प्राणा यान्तु न भक्षामि तत्क्वापीत्यवदद्गदी। व्रतभङ्गोऽत्र दुःखाय प्राणा जन्मनि जन्मनि ॥६१ है उसको कथाको तुम सुनो ।।५१।। विन्ध्याटवीमें खदिरसार नामक एक भील रहता था। एक दिन उसने श्री समाधिगुप्त मुनिराजको देखा और उन्हें प्रणाम किया ॥५२॥ उस समय मुनिराजने उस भीलसे कहा कि-'तुझे धर्म लाभ हो' । 'तुझे धर्म लाभ हो' इन वचनोंको जब भीलने सुना तब मुनिराजसे पूछा-महाराज ! आपने जो धर्म लाभ कहा, वह धर्म क्या है ? और उसका लाभ क्या है ।।५३।। तब मुनिराजने कहा-मांस, मदिरा, मधु आदि अपवित्र पदार्थोंके त्यागनेको धर्म कहते हैं और इनके त्याग रूप धर्मकी प्राप्ति होनेको लाभ कहते हैं। इस धर्मको जो पुरुष धारण करते हैं उन्हें स्वर्गादिकोंके उत्तम सुख संकल्प मात्रसे मिलते हैं ॥५४॥
__ मांसके छुड़ाने रूप मुनिराजके वचनोंको सुनकर भोल विचारमें पड़ गया कि मांसके छोड़नेको तो मैं समर्थ नहीं हूँ अब क्या करना चाहिये ? मुनिराजने उसके अभिप्रायोंको समझकर भीलसे कहा ।।५५।। हे वत्स ! तूने पहले कभी काकका मांस खाया है वा नहीं ? इन वचनोंको सुनकर भीलने कहा-महाराज ! मैंने अभी तक काकका मांस नहीं खाया । यह सुनकर मुनिराजने कहा-यदि तूने काकका मांस नहीं खाया है तो अबसे काकके मांसको छोड़ दे ॥५६।। यद्यपि तूने काकका मांस नहीं खाया है परन्तु इससे तेरे व्रत नहीं हो सकता। क्योंकि किसी वस्तुका जो त्याग होता है वह नियम पूर्वक होता है और जब नियम होता है तब ही धर्म होता है क्योंकि नियमके विना धर्म हो ही नहीं सकता ॥५७|| किसीको धनके देनेपर भी जब तक उससे व्याज आदिका निर्धार नहीं किया जाता, तब तक दिये हुए धनकी वृद्धि नहीं होती। यही कारण है कि धनवान् लोग द्रव्यके उधार देते समय व्याज वगैरहका निश्चय कर लेते हैं। उसी तरह नियमके बिना वस्तुका छोड़ना लाभकारी नहीं हो सकता, इसलिये किसी वस्तुका त्याग नियमपूर्वक करना चाहिये ।।५८।। इस तरह मुनिराजके वचनोंको सुनकर उस भीलने व्रतको ग्रहण किया और मुनिराजको नमस्कार करके अपने घर गया। कुछ समयके बाद उस भीलके अत्यन्त दुःसह रोग उत्पन्न हुआ ||५९|| भीलके रोगको दिनोंदिन बढ़ता हुआ देखकर उसके घरवालोंने रोगको शान्तिके लिये वैद्यको बुलाया। वैद्यने रोगको परीक्षा करके कहा कि यह रोग जब तक इसे काकका मांस न खिलाया जायगा तब तक कभी शान्त नहीं होगा ॥६०॥ जब भीलने सुना कि काकके मांसके विना रोग नहीं जायगा, तब वह बोला कि-चाहे मेरे प्राण भले ही चले जायें, परन्तु मैं काकका मांस कभी नहीं खाऊँगा । क्योंकि प्राणोंका नाश तो केवल यहीं दुःखके लिये होगा और व्रतभंग तो जन्म जन्ममें दुःखोंका देनेवाला है ॥६१।। मुनिराजके पास जो मैंने व्रत लिया है
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