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श्रावकाचार-संग्रह
ग्राह्यं दुग्धं पलं नैव वस्तुनो गतिरीदृशी । विषद्रोः पत्रमारोग्यकृन्मूलं मृतिकृद्भवेत् ॥४२ पशुनं हन्यते नैव हान्यते नैव दृश्यते । अन्यथा भक्षणे नैव दोषो मांसस्य विद्यते ॥ ४३ यो वक्तीति तमाहार्थो मृतस्यापि स्वयं पले । स्पृष्टे स्याद्धिसको यत्र भक्षिते तत्र किन हि ॥४४ योऽत्ति मांसं स्वपुष्ट्यर्थं तस्मिन्निह पलाशिनि । दयाधर्मः कुतो वह्निदग्धवृक्षे फलादिवत् ॥४५ मातापित्रादिसम्बन्धो भवे जातोऽङ्गिभिः सह । तेन ते मारिताः सर्वे पशून्मारयितामिषे ॥४६ तृणांशः पतितश्चाक्ष्णि यस्य दुःखायते तराम् । ज्ञातदुःखोऽपि हा हन्ति शस्त्रेण श्वापदान्स किम् ॥४७ यः स्वमांसस्य वृद्ध्यर्थं परमांसानि भक्षति । जिह्वारसग्रहग्रस्तस्तच्चरित्रेण पूर्यताम् ॥४८ सोऽघमो नरकं गत्वा भुक्त्वा दुःसहवेदनाम् । तिर्यग्गतौ ततः पापाद्वंभ्रमीति भवार्णव ॥ ९ बुद्धवेति दोषवद्धीमान्मुञ्चेद्योगैः कृतादिभिः । तत्संगमपि यः सोऽत्र मांसत्यागवती भवेत् ॥५० अत्रान्तरे शृणु श्रीमन् श्रेणिकं गौतमोऽवदत् । येन प्राप्तं जिनोद्दिष्टं मांसनिर्वृत्तितः फलम् ॥५१
पुरुषोंके प्रति जिन भगवान्के वचनोंका आश्रय लेकर यों उत्तर देना चाहिये ||४१ ||
दुग्ध तो ग्रहण करने के योग्य है परन्तु मांस ग्रहणके योग्य नहीं है इसमें हम क्या कहें वस्तुकी गति ही अनादिसे इस प्रकार है । यही बात इस उदाहरण से स्पष्ट की जाती है - विषके वृक्षका पत्र तो रोगों को दूर करनेवाला होता है और उसका मूल (जड़) मृत्युका देने वाला होता है । जिस तरह एक ही वृक्षसे पत्र और मूलकी उत्पत्ति होने पर भी दोनोंकी गति विचित्र है उसी तरह मांस और दुग्ध के विषय में भी समझना चाहिये ॥ ४२॥ हम पशुको न तो स्वयं मारते हैं न उसे दूसरे लोगोंके द्वारा मरवाते हैं और न मरा हुआ देखते हैं जब ये तीनों बातें नहीं देखी जाती हैं फिर मांसके खाने में कोई दोष नहीं है, जो लोग ऐसा कहते हैं, बुद्धिमान् पुरुषोंको उन लोगोंके लिए यों उत्तर देना चाहिये - यदि तुम्हारे कहनेको माना जाय तो अपने आप से मरे हुए जीवके मांसका स्पर्श करने मात्र से जब हिंसक हो जाता है तो उसके भक्षण में क्या हिंसक नहीं कहा जायगा ? अर्थात् अवश्य कहा जायगा ||४३-४४|| जो अपने शरीरकी पुष्टिके लिये जीवोंके मांसका भक्षण करते हैं उन पुरुषों में दयाधर्मका अङ्कुर भी नहीं हो सकता । जैसे अग्निसे जले हुए वृक्षमें फल पुष्पकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है || ४५ || इस संसार में इस जीवके जीवों के साथ अनेक बार माता पिता, भाई, स्त्री, पुत्र, पुत्री, आदि अनेक सम्बन्ध हुए हैं। इसलिये जिसने मांसकी लोलुपतासे बिचारे निरपराध दीन पशुओं को मारा है समझना चाहिये उसने अपने माता, पिता, आदिको ही मारा है || ४६ || नेत्रों में गिरे तृणकी वेदनाको जानते हुए भी दुष्ट लोग विचारे निरपराध पशुओं पर छुरी क्यों चलाते हैं ? इस बातका बहुत खेद है ||४७|| जो लोग जिला के रसकी लालसा में फँसकर अपने मांसकी वृद्धि के लिए दूसरे जीवोंके मांसको खाते हैं, उन दुष्ट पुरुषोंके दुश्चरित्रोंका वर्णन हम नहीं कर सकते। उनके इतने ही चारित्रोंसे पूरा पड़े ||४८|| मांसके खाने वाले नीच पुरुष 'नरकमें जाकर और वहाँ नाना तरहकी दुःसह वेदनाओंको भोग कर नरकसे निकलते हैं फिर उसी पापसे तिर्यञ्च गति में भ्रमण करते रहते हैं । उन पापी पुरुषोंके लिए यह भव समुद्र बहुत गहन है || ४९|| इस तरह मांसको दुःख और पापका मूल कारण समझ कर जो बुद्धिमान् मन, वचन, काय, और कृत, कारित, अनुमोदनासे मांसके स्पर्श तकको छोड़ देते हैं, 'ही लोग मांस त्याग व्रती कहे जाते हैं ||५० || इसी अवसरमें भगवान् गौतम स्वामीने महाराज श्रेणिकसे कहा- हे श्रीमन् ! जिसने मांसके छोड़ने से जिन भगवान्के कहनेके अनुसार फल पाया
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