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________________ धर्मसंग्रह प्रावकाचार ९९ ज्ञानं पूजा तपो लक्ष्मी रूपं जातिबलं कुलम् । यादृग न्यस्य नास्तीति मानो ज्ञेयं मदाष्टकम् ॥४३ कुदेवलिङ्गिशास्त्राणां तच्छ्रितां च भयादितः । षष्णां समाश्रयो यत्स्यात्तान्यनायतनानि षट् ॥४४ नैर्ग्रन्थ्य मोक्षमार्गोऽयं तत्त्वं जीवादिदेशितम् । को वेत्तीत्थं भवेन्नो वा भावः शङ्कति कथ्यते ॥४५ राजा स्यां पुत्रवान्स्यां वा रूपी स्यां भोगवान्तथा। शीलादितोऽभिलाषो यत्कांक्षादोषः स उच्यते ॥४६ रत्नत्रयपवित्राणां पात्राणां रोगपीडिते । दुर्गन्धादौ तनौ निन्दा विचिकित्सा मलं हि तत् ॥४७ कुमार्गे पथ्यशर्मणां तत्रस्थेप्यति संगतिः । त्रियोगैः क्रियते यत्र मूढदृष्टिरितीरिता ॥४८ प्रमादाज्जातदोषस्य जिनमार्गरतस्य तु । ईययोद्धासनं लोके तत्स्यादनुपगृहनम् ॥४९ परीषहोपसर्गाभ्यां सन्मार्गाद्मश्यतां नृणाम् । स्वशक्तौ न स्थिति कुर्यादस्थितीकरणं मतम् ॥५० सार्मिकस्य संघस्य पोडितस्य कुतश्चन । न कुर्याद्यत्समाधानं तदवात्सल्यमीरितम् ॥५१ कुदर्शनस्य माहात्म्यं दूरीकृत्य बलादितः । द्योतते न यदाहंन्त्यमसौ स्यादप्रभावना ॥५२ मलमुक्तं भवेच्छुद्धं सम्यक्त्वं शातकुम्भवत् । तेनाऽलङ्कृत आत्माऽयं महाघ्यः स्याज्जगत्त्रये ॥५३ करनेको पाखंडमूढ़ता कहते हैं ॥४२॥ ज्ञान, पूजा ( प्रतिष्ठा ), तपश्चरण, ऐश्वर्य, रूप (सोन्दर्य), जाति, बल और कुल ये जैसे हमारे हैं वैसे किसीके नहीं हैं इस तरहके खोटे अभिमानको मद कहते हैं ॥४३॥ कुदेव कुगुरु और खोटे शास्त्रोंके तथा इनके सेवन करनेवालोंके भयादिसे इनके सेवनको छह अनायतन कहते हैं ॥४४॥ सर्व परिग्रहको छोड़कर मुनिमार्गके धारण करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होगी या नहीं? तथा जीवादि तत्त्व ठीक है या नहीं ? इसे कौन जानता है इत्यादि सन्देह रूप आत्माके भावोंके होनेको शंका कहते हैं ॥४५॥ जो व्रत-शीलादि पालन करके, मैं राजा होऊँ, में पुत्रवान् होऊँ, मैं सुन्दर रूपका धारण करनेवाला होऊँ, मुझे अच्छी भोग सामग्रीकी प्राप्ति हो इत्यादि संसारीक विषयोंमें जो अभिलाषा ( गृघ्नता ) रखता है उसे आकांक्षा दोष कहते हैं ॥४६॥ सम्यग्दर्शनादिसे पवित्र मुनि आदि उत्तम पात्रोंके रोगादिसे पीड़ित तथा दुर्गन्धयुक्त शरीरको देखकर ग्लानि करनेको तथा निन्दा करनेको विचिकित्सा दोष कहते हैं ।।४७॥ दुःखोंके देनेवाले खोटे मार्गमें तथा खोटे मार्गमें चलनेवालोंके साथ मन, वचन और शरीरसे सम्बन्ध रखनेको मूढदृष्टि नाम दोष कहते हैं ॥४८॥ किसी धर्मात्मा पुरुषके असावधानीसे कोई दोष उत्पन्न हो जाय उसे ईर्ष्या बुद्धिसे लोगोंके सामने प्रकट करना यह अनुपगूहन दोष है ।।०९।। अर्थात्-कोई धर्मात्मा पुरुष यदि परीषह अथवा उपसर्गादिके आनेसे अपने दर्शन ज्ञान चारित्रादिसे च्युत होता हो उसे अपनी शक्तिके होने पर भी धर्म में दृढ़ नहीं करनेको अस्थितीकरण दोष कहते हैं ॥५०॥ किसी कारणसे धर्मात्मा पुरुषों पर किसी तरहकी विपत्ति आ जाय उस समयमें उनके चित्तको किसी तरह समाधान न करनेको अवात्सल्य नामक दोष कहते हैं ।।५१॥ मिथ्या मतोंके प्रचारको बल, प्रभाव आदिसे दूर करके जैनमतके माहात्म्यका प्रचार नहीं करनेको अप्रभावना कहते हैं ॥५२॥ जिस तरह सुवर्णका ऊपरी मैल दूर होनेसे वह अत्यन्त शुद्ध हो जाता है उसी तरह अनादि कालसे कर्मोंके जाल में फंसा हुआ यह आत्मा अपने आगामी अच्छे होनहारसे सम्यक्त्व रूप भूषणसे अलंकृत हो जाता है। उस समय तीनों लोकमें ऐसा कोई बहुमूल्य पदार्थ नहीं रहता जो आत्माके समान कहा जा सके ॥५३।। जिस तरह रोग युक्त मनुष्योंको पथ्य सहित औषध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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