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श्रावकाचार-संग्रह
तत्त्वार्थान् श्रद्दधानस्य निर्देशाद्यैः सदादिभिः । प्रमाणैर्नयभंगैश्च दर्शनं सुदृढ़ भवेत् ॥३१ गहीतमगृहीतं च परं सांशयिकं मतम् । मिथ्यात्वं न त्रिधा यत्र तच्च सम्यक्त्वमुच्यते ॥३२ संसर्गाज्जायते यच्च गृहीतं तच्चतुर्विधम् । अज्ञानं विपरीतं हि एकान्तो विनयस्तथा ॥३३ एतदस्तीति येषां ते प्रोक्ता अज्ञानिकादयः । तेषां कुवादिनो भेदास्त्रिषष्टया त्रिशती मताः ॥३४ सप्तषष्टिरशीत्यामा शतं चतुरशीतिका । द्वात्रिंशत्क्रमशोऽज्ञानिकादीनां च विशेषतः ॥३५ असियसकिरियाणं अक्किरिया हुंति चुलसीदो। सत्तट्रो अण्णाणी वेनइया हंति बत्तीसा ॥३६ अगृहीतं स्वभावोत्थमतत्त्वरचिलक्षणम् । तन्निगोतादिजीवेषद्गाढं चानादिसम्भवम् ॥३७ संशयो जैनसिद्धान्ते सूक्ष्मे सन्देहलक्षणः । इत्यमेतदथेत्थं वा को वेत्तीति कुहेतुतः ॥३८ त्रिमूढं च मवा अष्टौ षडेवाऽयतनानि च । शङ्कादयोऽष्टसम्यक्त्वे दोषाः स्युः पञ्चविंशतिः ॥३९ सदोषा देवता लक्ष्म्याबर्थ सेवेत यन्नराः । अवादि देवतामूढमरागैर्विश्ववेदिभिः ॥४० नद्यादेः स्नानमह्यादेरच्चश्मिादेः समुच्चयः । गिरिपातादि लोकजर्लोकमूढं निगद्यते ॥४१ सग्रन्था हिंसनारंभकृतो ये भववश्यगाः । तेषां भक्तया परीष्टियंबोध्या पाखंडमूढता ॥४२
अनुसार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानसे तथा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वसे, प्रत्यक्ष प्रमाण, परोक्षप्रमाणसे और नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इस तरह सात नयोंसे पदार्थोंके स्वरूपको ठीक ठीक समझकर तत्त्वोंको श्रद्धान करनेवालेका सम्यग्दर्शन अत्यन्त गाढ़ होता है ॥३१॥ जिस तत्त्व श्रद्धानमें गृहीत मिथ्यात्व, अगृहीत मिथ्यात्व और संशय मिथ्यात्व ये तीन प्रकारके मिथ्यात्व नहीं हैं उसे ही सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥३२॥ जो मिथ्यात्व दूसरोंकी संगतिसे होता है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। वह अज्ञान, विपरीत, एकान्त और विनयके भेदसे चार प्रकारका है ॥३३॥ ये मिथ्यात्व जिन लोगोंके होते हैं वे अज्ञानिक, सांशयिक, वैनयिक आदि कहे जाते हैं। ऐसे लोगोंके तीन सौ वेसठ भेद होते हैं ॥३४॥ अज्ञानिक मिथ्यात्वीके सरसठ (६७), वैपरीत्य मिथ्यात्वीके एकसो अस्सी ( १८०), एकान्त मिथ्यात्वीके चौरासी (८४) और वैनयिक मिथ्यात्वीके बत्तीस (३२) ये क्रमसे मेद हैं ॥३५॥ इस गाथाका तात्पर्य ऊपरके श्लोकके ही अनुसार है ॥३६।। स्वभावसे जिन भगवानके कहे हुए तत्त्वोंमें अप्रीतिके उत्पन्न होनेको अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
और वह निगोदादि जीवोंमें अनादिसे गाढ होता है ॥३७॥ अतिशय सूक्ष्म और गहन जैन सिद्धान्तमें खोटे कारणोंसे, यह पदार्थ ऐसे हैं ? अथवा ऐसे हैं ? इसे कौन जानता है ? इत्यादि रूप सन्देह होनेको संशय मिथ्यात्व कहते हैं ॥३८॥ तीन मूढता, आठ मद, छह अनायतन तथा शङ्कादि माठ दोष इस तरह ये पच्चीस दोष सम्यक्त्वको मलिन करनेके कारण हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको इन दोषोंका सम्पर्क भी नहीं होने देना चाहिये ॥३९॥ धन, पुत्र, कलत्रादिके लिये दोष युक्त देवोंका जो लोग सेवन करते हैं उसे ही सारे संसारके जाननेवाले श्री वीतराग भगवान् देवमूढ़ता कहते हैं ॥४०॥ नदो समुद्रादिमें स्नान करनेको धर्म मानना, पृथ्वी आदिके पूजनमें धर्म मानना, पत्थरोंका ढेर करने में धर्म समझना, तथा पर्वतादिके ऊपरसे गिरकर आत्महत्या करनेमें धर्म मानना, इत्यादि मिथ्यात्वके कारणोंको लोकोंके देखादेखी करना ये सब लोकमूढ़ता है ॥४१॥ अनेक प्रकारके परिग्रहको रखनेवाले, जीवोंकी हिंसा रूप आरंभके करनेवाले और जो पूर्णरूपसे इस संसारके वश हो रहे हैं ऐसे पाखंडियोंकी भक्तिपूर्वक सेवा पूजन
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