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________________ ( १० ) मधुकी अपवित्रता और भक्षण करनेका महापाप बताकर उसके त्यागका उपदेश पंच क्षीरी फलोंके और रात्रि भोजनके त्यागका उपदेश पाक्षिक श्रावकको शक्तिके अनुसार अणुव्रतोंके अभ्यासका उपदेश जुआ खेलने और वेश्या-सेवनादि दुर्व्यसनोंके त्यागका उपदेश जिनधर्म-श्रवण और धारण करनेके योग्य पात्रोंका निरूपण मिथ्यात्वको छोड़कर जिनधर्म धारण करनेको विधि और धारण करनेवालोंकी प्रशंसा शुद्ध आचरण करनेवाले शद्रको भी यथायोग्य धर्मक्रियाओंके करनेका विधान पाक्षिक श्रावकको यथाशक्ति जिन पूजादि करनेकी प्रेरणा नित्य मह(पूजन) स्वरूप आष्टाह्निक, ऐन्द्रध्वज, महामह और कल्पद्रुम महका स्वरूप अष्ट-द्रव्य-पूजनका फल जिन-पूजनसे दर्शन विशुद्धि और अभीष्ट फलको प्राप्ति जिन-पूजनमें विघ्न दूर करनेका उपाय यथायोग्य स्नान कर पूजन स्वयं करने और अस्नातदशामें अन्यसे पूजन करनेका विधान जिनप्रतिमा और जिनालय बनवानेका उपदेश कलिकालमें जिन प्रतिमाको आवश्यकता जिन-मन्दिरोंके आधार पर ही जिनधर्मकी स्थिति वसतिका और स्वाध्यायशाला आदिकी आवश्यकता अन्नक्षेत्र, प्याऊ, औषधालयादिका विधान जिन-पूजनका फल सिद्ध, साधु, धर्म और श्रुतकी पूजा-उपासनाका उपदेश गुरु-उपासनाकी विधिका उपदेश । यथाशक्ति दान और तपश्चरण का विधान जैनत्वका एक भी गुण प्रशंसनीय है एक भी उपकृत जैन अन्य सहस्रोंसे श्रेष्ठ चार निक्षेपोंकी अपेक्षा चार प्रकारके जैन पात्रोंको उत्तरोत्तर श्रेष्ठता और दुर्लभता भावजेन पर अनुरागका महान् फल साधर्मी व्यक्तिके लिए कन्यादानादिकी उपदेश कन्यादानका महत्त्व और गृहस्थके विवाहका उपयोगिता स्त्री-रहित पात्रको भूमि, स्वणादिके दानकी सोदाहरण व्यर्थता विषयोंमें सुख-भ्रान्तिको उनका उपभोग कर स्वयं छोड़ने और दूसरेको छुड़ानेका उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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