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अष्टसहस्री
[ द० प. कारिका ११४
करता है, जैसे- सकल उपाधि से रहित वस्तु शुद्ध सन्मात्र है। 'सं एकत्वेन सर्वान ग्रोहातीति संग्रहः।" उसी का अशुद्धि से ग्रहण करना व्यवहार है जैसे सद्रव्य के दो भेद करना जीव और अजीव । इत्यादि रूप से नयों का विशेष वर्णन नय चक्र आदि से भी ज्ञातव्य है। जितने शब्द हैं उतने ही नय के भेद हैं । इस प्रकार से कहा गया है । स्याद्वाद सप्तभंग नयों की अपेक्षा रखने वाला एवं हेय और उपादेय भेद को करने वाला प्रसिद्ध है । अतः प्रमाण का विषय धर्मातरों का ग्रहण करना है। नयों का विषय धर्मातरों की उपेक्षा-गौणता तथा दुर्णय का विषय धर्मांतरों का त्याग करना है । क्योंकि प्रमाण से तत् अतत् स्वभाव का ज्ञान होता है । नय से तत्-एक अंश का ज्ञान होता है तथा
अन्य का निराकरण करके निरपेक्ष एक अंश का __ ऐसा अनेकान्तात्मक अर्थ वाक्य के द्वारा निश्चित होता है। वह अर्थ विधि वाक्य से विधिरूप एवं प्रतिषेध वाक्य से प्रतिषेध रूप निश्चित होता है। जैसे-विधि वाक्य से "जो सत् है वह सभी अनेकान्तात्मक है, क्योंकि अर्थ क्रियाकारी है जैसे स्वविषयाकारज्ञान ।" प्रतिषेध वाक्य से"कोई भी वस्तु तत्त्व एकान्त रूप नहीं है क्योंकि उसमें सर्वथा अर्थक्रिया असम्भव है, जैसे-आकाश कमलादि।" यहाँ पर के द्वारा आरोपित एकान्त रूप से प्रतिषेध करने योग्य है अन्यथा परमत का निषेध ही कोई नहीं कर सकेगा । केवल विधि यदि प्रतिषेध रहित है या विधि रहित प्रतिषेध है वे दोनों ही विशेषण से रहित असत् रूप ही हैं। क्योंकि विधि और प्रतिषेध प्रधान एवं गौण भाव से सत्-असत् आदि वाक्यों में रहते हैं ।
वचन 'तत् अतत्' स्वाभाव वाली वस्तु का प्रतिपादन करते हैं यदि वे स्वरूप के समान पररूप भी विधि कर देखें तो वे वचन असत्य ही हो जावेंगे पुनः उनसे तत्त्वार्थ का उपदेश कैसे हो सकेगा? 'यही है' इस विधि रूप एकांत के वचन से प्रतिषेध पक्ष का निषेध भी नहीं हो सकेगा।
____ यदि बौद्धाभिमत वचन प्रतिषेध अर्थ को कहने वाले ही माने जावेंगे, तब तो वे वचन अपने अर्थ को न कहने से आकाश पुष्प के समान असत् ही हो जावेंगे। अतः वचन का यह स्वभाव है कि "अपने अर्थ सामान्य का प्रतिपादन करते हुये विवक्षित से इतर सभी का निषेध करते हैं ।" यदि वे अन्यापोह रूप ही अर्थ करेंगे तब तो वचनों का उच्चारण ही व्यर्थ हो जावेगा । कारण कि "यह है या यह नहीं है" ऐसा उन वचनों का अर्थ सिद्ध नहीं होता है ।
यदि आप बौद्ध कहें कि सामान्य वचन विशेष का कथन नहीं करते हैं तब तो वे सामान्य वचन असत्य ही हो जावेंगे, अतएव इष्ट विशेष की प्राप्ति के लिये स्यात्कार पद ही सत्य लाञ्छन से लाञ्छित है । यदि 'अस्ति' यह पद केवल अपोह को ही कहते हैं यो यह अपोह क्या बला है ? वह अन्य की व्यावृत्ति रूप है या उस अन्यापोह से विकल्प रूप ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तो वे सामान्य
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