SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 650
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नय का लक्षण ] तृतीय भाग [ ५७१ संप्रत्यहेतुवादागमः स्याद्वादो, 'हेतुवादो नयस्ताभ्यां संस्कृतमलंकृतं तत्वज्ञानं प्रमाणं युक्ति शास्त्राविरुद्धं सुनिश्चितासंभवबाधकमिति व्याख्यानान्तरमभिप्रायन्तो भगवन्तो हि हेतुलक्षणमेव प्रकाशयन्ति, स्याद्वादस्य प्रकाशितत्वात् । सधर्मणैव साध्यस्य 'साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः ॥१०॥ [ नयस्य लक्षणं कृत्वा स हेतुरिति समर्थयति । ] नीयते साध्यते गम्यार्थोनेनेति नयो-हेतुः । स च हेतु सधर्मणव दृष्टान्तर्मिणा साधात्साध्यस्य साध्यधर्माधिकरणस्य धर्मिणः परमागमप्रविभक्तस्यार्थविशेषस्य शक्यस्याभिप्रेतस्याप्रसिद्धस्य विवादगोचरत्वेन व्यञ्जको, न 'पुनविपक्षेण साधर्म्यात्, तेन वैधा उत्थानिका-अहेतुवाद आगम स्वाद्वाद है और हेतुवाद नय है। इन दोनों से संस्कृतअलंकृत तत्त्वज्ञान ही प्रमाण है वह युक्ति शास्त्र से अविरुद्ध है। सुनिश्चितासम्भवद्बाधक रूप है। इस प्रकार से भिन्न व्याख्यान को करने का अभिप्राय रख करके भगवान् समंतभद्राचार्यवर्य इस समय हेतु लक्षण को ही प्रकाशित करते हैं, क्योंकि स्याद्वाद तो प्रकाशित कर ही दिया गया है। जो सपक्ष के साथ साध्य के, साधो से अविरोधी। साध्य अर्थ का ज्ञान कराने, वाला "नय" है प्रगट सही ।। स्याद्वाद से प्रगट किये ही, अर्थ विशेषों का व्यंजक । सुप्रमाण से ज्ञात वस्तु के, अंश-अंश को करे प्रगट ।।१०६॥ कारिकार्थ-सपक्ष (दृष्टान्त) के साथ ही साध्य के साधर्म्य से अविरोध रूप से जो स्याद्वादश्रुत प्रमाण के द्वारा विषयीकृत पदार्थ विशेष का व्यंजक होता है वह नय कहलाता है । यह नय का लक्षण है इसे ही हेतु कहते हैं ॥१०६॥ [नय का लक्षण करके 'वह नय हेतु है' ऐसा समर्थन करते हैं। ] "नीयते साध्यते गम्योऽर्थोऽनेनेति नयो-हेतुः ।" जिसके द्वारा गम्य-जानने योग्य अर्थ को प्राप्त किया जाता है साध्य किया जाता है उसे नय कहते हैं । वही हेतु है। वह हेतु सधर्मणा-दृष्टांत धर्मी के साथ साधर्म्य से साध्य का व्यजंक है वह साध्य कैसा है ? 1 लिङ्गवादो नयश्च । ब्या० प्र० । 2 समन्तभद्राः । दि० प्र० । 3 पूर्वम् । ब्या०प्र०। 4 सधर्मत्वात् । ब्या० प्र०। 5 विरोधरहितत्वात् । ब्या० प्र० । विक्षेपेणैव वैधात इत्यविरोधतो विशिष्टस्य साध्यस्य प्रकाशको नयः । दि० प्र० । 6 साध्यस्य भवतीति सम्बन्धः । दि० प्र०। 7 न पुनः व्यजकत्वेन विपक्षेण । इति पा० प्रकाशकः । दि. प्र०। 8 विपक्षेण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy