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________________ ५५४ ] अष्टसहस्री [ द० ५० कारिका १०२ आदि पांचों इन्द्रियों के ज्ञान को क्रम से ही माना है। एवं ये ज्ञान नयों से उपलक्षित हैं तथा स्याद्वाद से उपलक्षित हैं क्योंकि ये नय और स्याद्वाद विकल और सकल को विषय करने वाले हैं अथवा तत्त्वज्ञान को स्याद्वाद नय से संस्कृत ही समझना चाहिये क्योंकि वे क्रम और अक्रम दोनों प्रकार से होते हैं। ... सप्तभंगी प्रक्रिया तत्त्वज्ञान कथंचित् अक्रमभावी है क्योंकि केवलज्ञान की अपेक्षा सकल पदार्थ को विषय करते हैं। कथंचित् तत्त्वज्ञान क्रमभावी है क्योंकि मत्यादि ज्ञानों की अपेक्षा विकल को विषय करने वाले हैं । तत्त्वज्ञान कथंचित् उभय रूप है इत्यादि । अथवा अर्थज्ञान पर्याय के प्रति तत्त्वज्ञान स्याद्वाद नय से संस्कृत है अतः कथंचित् तत्त्वज्ञान प्रमाण है क्योंकि स्व और अर्थ प्रमिति के प्रति साधकतम है कथंचित् तत्त्वज्ञान अप्रमाण है क्योंकि प्रमाणान्तर से प्रमेय है अथवा स्वतः प्रमेय है इत्यादि सप्तभंगी प्रक्रिया है। अथवा कथंचित् वह तत्त्वज्ञान सत् रूप है क्योंकि स्वरूपादि की अपेक्षा रखता है । कथंचित् तत्त्वज्ञान असत् रूप है क्योंकि पर रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा है । इत्यादि रूप से सप्तभंगी। केवलज्ञान का व्यवहित फल उपेक्षा है शेष मति, श्रुत आदि चारों ज्ञानों का व्यवहित फल ग्रहण करने योग्य का उपादान, छोड़ने योग्य का त्याग तथा उपेक्षा है। एवं इन पांचों ज्ञानों का ही साक्षात् फल अपने-अपने विषयभूत पदार्थों में अज्ञान का नाश होना ही है। केवली भगवान के सभी प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं अतएव सभी हेय और उपादेय में उनकी उपेक्षा है संसार और उसके कारण हेय हैं मोक्ष और उसके कारण उपादेय हैं। सौगत-भगवान् परम कारुणिक हैं अतः पर के दुःख को दूर करने की इच्छा वाले हैं पुनः उनके उपेक्षा कैसे होगी ? जैन-भगवान् में मोह विशेष से होने वाली करुणा ही असम्भव है। तथा बिना करुणा के भी अपने एवं पर के दुःखों को दूर करना होता है जैसे दीपक आदि बिना करुणा के स्वभाव से ही स्वपर अंधकार को दूर करते हैं। इसलिये संपूर्ण अंतराय कर्म के नष्ट हो जाने से केवली भगवान के अभयदान होता है वह आत्मा का स्वभाव ही है उसे ही परम दया कहते हैं और वह परम दया ही मोह के अभाव से रागद्वेषादि परिणाम के न होने से उपेक्षा रूप कही जाती है अत: तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से हितोपदेश में प्रवृत्ति होने से पर के दुःखों का निराकरण सिद्ध हो जाता है एवं प्रमाण से उसका फल कथंचित् भिन्न है कथंचित् अभिन्न है जैसे प्रमाण रूप तत्त्वज्ञान स्याद्वाद नय से संस्कृत है तथैव उसका फल भी स्याद्वादनय से संस्कृत है ऐसा समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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