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________________ । ५३६ ] मष्टसहस्री [ ८० ५० कारिका १०१ भाविविकल्पत्वाद् गृहीतग्रहणात्, सम्बन्धप्रतिपत्तौ प्रत्यक्षानुपलम्भयोरेव भूयः प्रवर्तमानयोः प्रमाणत्वादित्येके, तेप्यसमीक्षितवाचः, कथंचिदपूर्वार्थविषयत्वाहाख्यविकल्पस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः प्रत्यक्षानुपलम्भयोः सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्च व्याप्तौ प्रवृत्यसंभवात् । यदि 'पुनरप्रमाणमेव व्याप्तिज्ञानं सम्बन्धं वा व्यवस्थापयेत्तदा प्रत्यक्षमनुमानं चाप्रमाणमेव स्वविषयं व्यवस्थापयेत् किं तत्प्रमाणत्वसाधनायासेन ? 'लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धप्रतिपत्तिरर्थापत्तेरित्यन्ये । तेषामपि सम्बन्धज्ञानपूर्वकत्वेपत्तेरर्थापत्त्यन्तरानुसरणादनवस्था । तदपूर्वकत्वे जैन-ऐसा कहने वाले आप भी बिना विचारे ही वचन बोलने वाले हैं। कथचित् अपूर्वार्थ को विषय करने वाला होने से यह ऊह-तर्कज्ञान भी प्रमाण ही है। क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भअनमान सन्निहित विषय के बल से उत्पन्न होते हैं एवं ये अविचारक हैं। इसलिये इनकी र को ग्रहण करने में प्रवत्ति होना असम्भव है अर्थात् बौद्धमत में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दोनों ही एक विषय को ग्रहण करते हैं अतः विचार के करने में अयोग्य हैं। विचार तो अनेक ज्ञान विषयक अनेक ज्ञान की उपस्थिति के होने पर ही सम्भव है अतएव विचार तर्क से ही साध्य है। यदि आप व्याप्ति ज्ञान को अथवा अविनाभाव को अप्रमाण ही व्यवस्थापित करेंगे तब तो प्रत्यक्ष और अनुमान भी अप्रमाण ही अपने विषय को व्यवस्थापित करेंगे पुनः उनको प्रमाण रूप सिद्ध करने के प्रयास से क्या प्रयोजन है ? अतः तर्क प्रमाण को भी पृथक् मानना होगा। मीमांसक-लिंग और लिंगी के अविनाभाव का ज्ञान अर्थापत्ति प्रमाण से ही होता है न कि तर्क से। जैन-आपके यहाँ भी अर्थापत्ति के विषय में हम प्रश्न कर सकते हैं कि वह अर्थापत्ति सम्बन्ध ज्ञानपूर्वक है या बिना सम्बन्ध के होती है ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तब तो अर्थापत्ति को संबंधज्ञानपूर्वक स्वीकार करने पर भिन्न अर्थापत्ति की आवश्यकता पड़ने से अनवस्था आ जावेगी। द्वितीय पक्ष में स्वयं अनिश्चित अन्यथा भवन में भी अर्थापत्ति की उत्पत्ति का प्रसंग आ जावेगा। अर्थात् हेतु और साध्य के सम्बन्ध को विषय करने वाली अर्थापत्ति की उत्पत्ति ऐसे पुरुष को भी हो 1 ऊहस्य । ब्या० प्र०। 2 प्रत्यक्षेण । ब्या० प्र० । 3 संबन्धप्रतिपत्तो तयोः प्रामाण्यम् । ब्या० प्र० । 4 तर्कः स्वयमप्रमाणं तथापि प्रमाणानुग्रहकारीति चेत् । ब्या० प्र०। 5 क । ब्या० प्र०। 6 स्या. प्रत्यक्षानुमानेऽप्रमाणभूतेपि यदि स्वविषयं व्यवस्थापयतः तदा तयोः प्रमाणत्वसाधनखेदेन कि न किमपि । दि० प्र.। 7 अर्थापत्तेः सकाशाल्लिङ्गलिङ्गिसंबन्धज्ञानं जायत इति अर्थापत्तिवादिनो वदन्ति स्या. अर्थापत्ति: संबन्धज्ञानविका अविका वेति विकल्पः प्रथमपक्षे अर्थापत्तौ संबन्धज्ञानमन्तर्भूतं तदा साऽर्थापत्तिरन्यस्या जायते साप्यन्यस्याः साप्यन्यस्या एवमनवस्था द्वितीयपक्षे पीनो देवदत्तो दिवा न भुंक्ते रात्री भुङ्क्तम् । इत्यर्थः । भोजनाभावे पीनत्वाभावः । इत्यनन्यथा भवनं न निश्चितमनन्यथा भवनं येन सोऽनिश्चितानन्यथाभवनः । तस्य पंसः स्वयमेवार्थापत्तिरुत्पत्तिः प्रसजतिः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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