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________________ ५१८ ] अष्टसहस्री [ ८०प० कारिका १०१ [ तत्त्वज्ञानं प्रमाण मिति प्रमाणलक्षणस्य निर्दोषत्वमस्ति । j प्रमाणलक्षणसंख्याविषयविप्रतिपत्तिरनेन व्यवच्छिद्यते । तत्त्वज्ञानं प्रमाणमिति वचनादज्ञानस्य निराकारदर्शनस्य सन्निकर्षादेश्चाप्रमाणत्वमुक्तं, तस्य स्वार्थाकारप्रमिति प्रति साधकतमत्वानुपपत्तेः, ज्ञानस्यैव 'स्वार्थाकारव्यवसायात्मनस्तत्र साधकतमत्वात् । नहि स्वार्थाकारव्यवसायशून्यं निर्विशेषवस्तुमात्रग्रहणं' दर्शन मिन्द्रियादिसन्निकर्षमा श्रोत्रादिवृत्तिमात्रं वा यथोक्तपरिच्छित्ति प्रति साधकतम, तद्भावाभावयोस्तस्यास्तद्वत्तापायात् । यद्भावे1 हि प्रमितेर्भाववत्ता यदभावे चाभाववत्ता तत्तत्र साधकतमं युक्तं, भावाभाव । 'तत्त्वज्ञान प्रमाण है' यह प्रमाण का लक्षण निर्दोष है। ] प्रमाण का लक्षण, संख्या और विषय इनका विसंवाद इसी से दूर कर दिया जाता है। "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं" इस वचन से अज्ञान, निराकारदर्शन एवं सन्नि कर्षादि को अप्रमाण कहा गया है क्योंकि ये ज्ञान स्वार्थाकार प्रमिति के प्रति साधकतम नहीं हैं । स्वार्थाकार व्यवसायात्मक ज्ञान ही उस स्वार्थाकारप्रमिति के प्रति साधकतम है। स्वार्थाकार व्यवसाय से शून्य निविशेष वस्तुमात्र को ग्रहण करने वाला निर्विकल्पदर्शन इन्द्रियादि सन्निकर्षमात्र अथवा सांख्योक्त श्रोत्रादि वृत्तिमात्र प्रमाण स्वार्थाकार को जानने के प्रति साधकतम नहीं हो सकते हैं क्योंकि “ उनके होने पर उस ज्ञान का होना एवं नहीं होने पर नहीं होना" ऐसा नहीं देखा जाता है । जिसके होने पर ज्ञान रूप क्रिया का होना हो एवं जिनके नहीं होने पर नहीं होना हो वही वहां पर साधकतम माना गया है । "भावाभावयोईयोस्तद्वत्ता साधकतमत्वम्" ऐसा वचन है और यह साधकतम का लक्षण निर्विकल्पदर्शनादिकों में सम्भव नहीं है क्योंकि उनके सद्भाव में भी स्वपरज्ञान क्रिया का कहीं पर (दूरस्थ पदार्थ में) अभाव देखा जाता है । संशयादि अन्यथा अनुपद्यमान हैं विशेष्य विषयक सन्निकर्ष आदि के अभाव में भी विशेषणज्ञान से विशेष्यज्ञान का सद्भाव स्वीकार किया गया है। शंका- इस प्रकार से तो ज्ञान में भी साधकतमत्व नहीं हो सकता है क्योंकि संशयादि ज्ञान के होने पर भी यथार्थज्ञान का अभाव है एवं उनके न होने पर भी ज्ञान का सद्भाव है । 1 श्लोकेन । ब्याख्यानेन । दि० प्र० । 2 कूत इत्याह । निराक्रियते । दि० प्र०। 3 अज्ञानस्येति विशेषणं निराकारदर्शनस्य सन्निकर्षादेरिति विशेष्यद्वयेपि संबन्धनीयम् । ब्या० प्र०। 4 अज्ञानस्य । ब्या० प्र०। 5 मूर्तकर्म संबन्धात् मूर्त एव । ब्या० प्र०। 6 निश्चितम् । दि० प्र०। 7 परस्वरूप । दि० प्र०। 8 स्वार्थाकारप्रमिती । दि० प्र०। १ भागरहितम् । ब्या० प्र०। 10 अर्थ । ब्या० प्र०। 11 यस्य प्रमाणस्यास्तित्वे । दि० प्र० । 12 प्रमिती । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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