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________________ ईश्वरसष्टिकर्तुत्व का खण्डन ] तृतीय भाग श्वराभिसंधेरेकत्वे सकृदुत्पत्त्यादिप्रसङ्गाद्विचित्रत्वानुपपत्तेरिति । तदनेकत्वेप्यक्रमत्वेऽस्यैव' दोषस्योपनिपातात्', क्रमवत्त्वे' केषांचित्कार्याणां सकृदुत्पत्त्यादिदर्शनविरोधात् कथमनिरयोभिसंधिरीशस्य: स्यात् ? सन्नप्यसौ यदीश्वरसिसृक्षानपेक्षजन्मा तदा तन्वादयोपि तथा भवेयुरिति न कार्यत्वादिहेतवः' प्रयोजकाः स्युः । सिसृक्षान्तरापेक्षजन्मा चेदनवस्था। बुद्धिपूर्वकत्वादिच्छाया न दोष इति चेत्सा तर्हि बुद्धिरीश्वरस्य यदि नित्यैकस्वभावा तदा कथमनेकसिसृक्षाजननहेतुः क्रमतो युज्येत युगपद्वा ? पूर्वपूर्वसिसृक्षावशादुत्तरोत्तरसिसृक्षोत्पत्तिनिमहेश्वर की इच्छा को यदि एक ही मानोगे, तो एक साथ ही सभी कार्यों की उत्पत्ति आदि का प्रसङ्ग आ जावेगा। पुनः सभी कार्यों में विचित्रपना नहीं हो सकेगा। महेश्वर की इच्छा को अनेक मानोगे तो वे क्रम से होती हैं या अक्रम से ? अक्रम पक्ष में उस महेश्वर की सिसक्षा को अनेक मान करके भी यदि उसे अक्रम से मानोगे तो सकृत उत्पत्ति आदि के प्रसङ्ग रूप ये ही दोष आ जावेंगे। __यदि इच्छा को क्रम से मानोंगे तो किन्हीं-किन्हीं कार्यों का सकृत्-एक साथ उत्पन्न होना देखा जाता है, वह भी विरुद्ध हो जावेगा । पुनः महेश्वर की इच्छा अनित्य रूप कैसे सिद्ध हो सकेगी? अच्छा ! ऐसा मान भी लीजिये, फिर भी वह इच्छा ईश्वर की इच्छा के बिना होती है या इच्छापूर्वक ? __ यदि प्रथम पक्ष लेवो तो तनु आदि भी उस सिसक्षा की अपेक्षा न करके ही हो जावें। इस प्रकार से कार्यत्वादि हेतु प्रयोजक नहीं हो सकेंगे। यदि कहो सिसृक्षांतर की अपेक्षा करके ये कार्य होते हैं तब तो अनवस्था दोष आवेगा ही आवेगा। नैयायिक–महेश्वर की इच्छा बुद्धिपूर्वक ही होती है। अतः ये कोई दोष नहीं आते हैं। जैन-यदि वह बुद्धि ईश्वर की नित्य एक स्वभाव वाली है तब तो वह अनेक सिसृक्षा को उत्पन्न करने में क्रम से अथवा युगपत् हेतु कैसे होगी ? 1 स्था० ईश्वरस्याभिस धिरनेए इत्युच्यते चेत्तदा केषाञ्चित्कार्याणां घटपटादीनामुत्पत्त्यादिकं क्रमेण जायमान विरुद्धयते अथवा अनेकोभिसन्धिक्रमेण कार्याणि करोतीति चेत्तदा केषाञ्चिच्छाल्यंकूरादीनां युगपदेवोत्पत्तिविनाशादिकदर्शनं विरुद्धयते । दि० प्र०। 2 अनुपपत्तिलक्षणस्य । दि० प्र० । 3 कथमनित्योभिसन्धिरीश्वरस्य । दि० प्र० । 4 द्वितीय विकल्पं दूषयन्ति । ब्या० प्र०। 5 एवं विचार्यमाणे ईश्वरस्याभिसन्धिरनित्यः कथं स्यान्न कथमपि । दि० प्र० । 6 परिणामः । दि० प्र० । 7 संनिवेशविशिष्टत्वादित्यादि । दि० प्र०। 8 ईश्वरवादी वदति नित्यकस्वभावबोधस्येश्वरस्थ पूर्वपूर्वसिसृक्षावशादुत्तरोत्तरसिसूक्षा उत्पद्यत इति विरुद्धं न । 'उत्तरसिसृक्षोत्पत्तिसदृशकाले अनेकेषां तनुभुवनादिकार्याणामुत्पतिश्च विरुद्धो न कोर्थः पूर्वपूर्वसिसृक्षातः उत्तरसिसृक्षातन्वादिकार्याणि च जायन्त इति कार्यकारणप्रवाहोनादिरिति चेत् स्या० न । कस्मादीश्वरबौधैक एकस्वभावश्च पूर्वपूर्वसिसृक्षां नापेक्षां नापेक्षते यतः अपेक्षते चेत्तदा बोधस्य स्वभावनाशादनित्यत्वप्रसंगः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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