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________________ अथाष्टमः परिच्छेदः। +-- धर्मपौरुषतो येन, स्वदेवो मूलतो हतः, चकास्त्यनंतशक्त्या यो, नुमस्तं मोक्षहेतवे ।। ज्ञापकमुपायतत्त्वं समन्तभद्राकलङ्कनिर्णीतम् । सकलकान्तासंभवमष्टसहस्री निवेदयति ॥१॥ दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदेवं पौरुषतः कथम् । दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥८॥ अथाष्टम परिच्छेद अर्थ-जिन्होंने अपने धर्म पुरुषार्थ के बल से अपने देव को-शुभ-अशुभ कर्म को जड़मूल से नष्ट कर दिया है और जो अनंतशक्ति से-अनंतगुणों से शोभित हो रहे हैं. मोक्ष के लिये हम उन्हें नमस्कार करते हैं । (यह मंगलाचरण श्लोक अनुवादक/ द्वारा रचित है ।) श्लोकार्थ-जो श्री समन्तभद्र स्वामी के द्वारा 'देवागम स्तोत्र' रूप से और श्री भट्टाकलंक देव के द्वारा अष्टशती टीका रूप से निर्णीत है। अथवा जो श्री समंतभद्र स्वामी के द्वारा अकलंकनिर्दोष रूप से निर्णीत है तथा समंतात्-सर्वतः भद्रस्वरूप, श्री अकलंकदेव के द्वारा निर्णीत है। जिसमें एकांत पक्ष असंभव हैं ऐसा ज्ञापक-प्रकाशक ज्ञान रूप उपाय तत्त्व का यह अष्टशती विस्तृत विवेचन करती है ।।१।। यदी भाग्य से सभी कार्य को, सिद्धि मान लिया तब तो। पुरुषारथ से भाग्यरूप यह, कार्य बना यह कहना क्यों ।। यदी भाग्य यह पूर्व-पूर्व के, भाग्यों से ही बन जाता ॥ तब तो मोक्ष नहीं किसको भी, पौरुष भी निष्फल होगा ।।८।। कारिकार्थ-यदि देव-भाग्य से ही अर्थ-प्रयोजन की सिद्धि मानी जाये, तब तो वह दैव पौरुष से पुरुष के व्यापार से कैसे सिद्ध होगा? यदि ऐसा कहो कि उस देव की सिद्धि भी दैव से ही होती है तब तो मोक्ष भी कभी नहीं हो सकेगा अतः उस मोक्ष का अभाव हो जावेगा एवं मोक्ष के कारण रूप से स्वीकृत पौरुष-पुरुषार्थभी निष्फल हो जावेगा।८८।। । बसः । ब्या० प्र० । 2 पुण्यपापरूपात् । ब्या० प्र० । 3 देव मुत्पद्यत इति चेत् । तदा । दि० प्र० । 4 मोक्षाभावः स्यात् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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