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________________ जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ४३३ "जीव के अस्तित्व की सिद्धि का सारांश" चार्वाक का कहना है कि अपने स्वरूप से रहित, शरीर इन्द्रिय आदि के समूह से जीव शब्द अर्थ वाला है अतएव जैनों के द्वारा मान्य अनादिनिधन आत्मा नाम को सिद्ध करने वाला कोई जीव शब्द नहीं है क्योंकि चैतन्य भी सत् हैं एवं भूत चतुष्टय भी सत् हैं अतः सत् रूप से दोनों जगह समन्वय होने से जीव भूत चतुष्टय से जन्य है किन्तु भूत चतुष्टय तो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं, उन चारों में एक-विकारी रूप समन्वय नहीं है। __ इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपका यह कथन सर्वथा असत् है। जीव शब्द संज्ञा रूप होने से बाह्यार्थ से सहित है । “जीव गया" विद्यमान है इत्यादि रूप से वह लोक रूढ़ि का आश्रय लेता है यह व्यवहार शरीर में नहीं हो सकता है क्योंकि शरीर तो आत्मा के भोग का आश्रय है यह व्यवहार इन्द्रिय एवं विषयों में भी नहीं होता है क्योंकि इन्द्रियाँ तो उपभोग की साधन हैं एवं विषय तो आत्मा के भोग्य रूप हैं अतः भोक्ता आत्मा में ही "जीव" यह शब्द रूढ़ है । जन्म से लेकर मरण पर्यन्त ही अन्वय रूप से आत्मा भोक्ता हो ऐसा नहीं है किन्तु जन्म से पहले एवं मरण के अनन्तर भी उसका सद्भाव पाया जाता है। जो आपने कहा कि चैतन्य एवं भूत चतुष्टय एक विकारी रूप से समन्वित हैं एवं भूत चतुष्टय सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं यह कथन भी सर्वथा विपरीत है क्योंकि चैतन्य का भूत के साथ सत् रूप से समन्वय होकर भी लक्षण से सर्वथा भेद है, तथा भूत चतुष्टय सर्वथा भिन्न-भिन्न नहीं हैं । इसलिये कर्तृत्व, भोक्तृत्व लक्षण, ज्ञान दर्शन उपयोग स्वभाव वाले जीव से जीव शब्द बाह्यार्थ सहित है। सांख्य जीव को निरतिशय कूटस्थ नित्य अपरिणामी मानते हैं । यौग अस्वसंविदित कहते हैं, ब्रह्मवादी सभी शरीरों में एक अभिन्न रूप ही जीवात्मा को कहते हैं एवं बौद्ध आत्मा को प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न ही मानते हैं इन सबके द्वारा स्वीकृत जीव शब्द बाह्यार्थ सहित नहीं है क्योंकि यह सब मान्यता केवल कपोल कल्पित ही है। इस पर यदि बौद्ध कहें कि मायादि भ्रान्तिरूप शब्द अपने अर्थ से रहित हैं तब तो भ्रान्तिवाचक शब्द यदि भ्रान्ति रूप अर्थ को नहीं कहेंगे तो उन शब्दों से भ्रान्ति का ज्ञान न होकर अभ्रांति रूप ज्ञान ही हो जावेगा। एवं सभी बाह्य पदार्थ प्रमाणभूत हो जावेंगे किन्तु ऐसा है नहीं । तथैव खरविषाणादि शब्द भी अपने अभाव रूप अर्थ के वाचक ही हैं। अतएव ज्ञान, शब्द और अर्थ इन तीनों के नाम बुद्धि आदि अर्थ को कहने वाले हैं। "जीवो न हंतव्यः" इस वाक्य से जीव अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान, तथा “जीव इति बुद्धयते' इससे ज्ञान रूप अर्थ का ज्ञान एवं “जीव इत्याह" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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