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अष्टसहस्री
[ स० ५० कारिका ८३
ग्राह्य हैं अतः आपका तत्त्व एकरूप सिद्ध नहीं होता है । विज्ञान मात्र ही तत्त्व को मानने से पर को समझाने के लिये आपके वचनों का प्रयोग भी मिथ्या रूप ही है।
कोई बाह्य पदार्थवादी का कहना है कि जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सभी ज्ञान से संबंधित हैं क्योंकि विषयाकार ही ज्ञान होता है । जैसे अग्नि का प्रत्यक्ष एवं अनुमान ज्ञान एवं स्वप्न ज्ञान भी विषयाकार ज्ञान रूप है । इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यदि सभी पदार्थों को ज्ञान से संबंधित ही मानेंगे तो प्रमाण, प्रमाणाभास ही समाप्त हो जावेगा "तृणाग्रे हस्तियूथशतमास्ते" इत्यादि शब्दों का ज्ञान एवं स्वप्न ज्ञान अपने-अपने पदार्थ से संबधित नहीं है क्योंकि ज्ञानों में विसंवाद देखा जाता है।
यदि आप कहें कि खरविषाण आदि शब्दों का ज्ञान एवं स्वप्न ज्ञान अलौकिक अर्थ को विषय करता है यह कथन भी आपका अलौकिक ही है अतएव एकांत से बाह्य पदार्थ ही होते हैं यह मान्यता भी गलत ही है। इन दोनों को परस्पर निरपेक्ष मानने वाले उभयात्मकतत्त्ववादी का कथन भी विरुद्ध हो है । तत्त्व को अवाच्य मानना भी एकांत से अघटित है किन्तु स्याद्वादी के यहां सभी सुघटित है। सभी ज्ञानस्वरूप संवेदन की अपेक्षा से एवं सत्वप्रमेयत्वादि की अपेक्षा से प्रमाण रूप ही हैं अतएव अंतःप्रमेय की अपेक्षा से प्रमाणाभास कुछ भी नहीं है । किन्तु बाह्य प्रमेय की अपेक्षा से अर्थात् बाह्य पदार्थों को प्रमेय करने से ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं अतः अंतस्तत्त्व एवं बहिस्तत्त्व दोनों ही सिद्ध हैं।
अप्रत्यक्ष ज्ञानवादी मीमांसक का खण्डन
मीमांसक कहता है कि ज्ञान तो स्वयं परोक्ष है । पदार्थ को जानने से अनुमित किया जाता है अतः अर्थज्ञान कर्म रूप है । अर्थ की प्रकटता ही उस परोक्षज्ञान में हेतु है, वह पदार्थ ही बाह्य देश से संबंधित होने से प्रत्यक्षरूप से अनुभव में आता है। कहा भी है "ज्ञातेत्वनुमानादवगच्छति बुद्धि" अर्थात अनुमान से पदार्थ को जान लेने पर ज्ञाता ज्ञान को जानता है। इस पर जैनाचार्य उत्तर देते हैं कि पहले आप मीमांसक यह तो बतायें कि वह अर्थ की प्रकटता पदार्थ का धर्म है या ज्ञान का? यदि पहला पक्ष लेवें तो अर्थ परिच्छेदक ज्ञान से भिन्न अर्थ की प्रकटता असिद्ध ही है वह हेतु नहीं बनेगी क्योंकि वह अस्वसंविदित है। आपके यहाँ तो ज्ञान एवं पदार्थ दोनों ही अव्यवसायात्मक एवं अस्वसंविदित हैं। यदि आप कहें कि ज्ञान तो अप्रत्यक्ष है उसके द्वारा किया गया अर्थ ज्ञान प्रत्यक्ष है यह कथन भी शक्य नहीं है। अन्यथा भिन्न पुरुष के ज्ञान से भी पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाने चाहिये।
इस प्रकार से आप मीमांसक ज्ञान को तो अस्वसंविदित मान रहे हैं तथा अर्थ को प्रकटता रूप अर्थ के स्वरूप को स्वसंविदित कह रहे हैं अतः आप विपरीत बुद्धि पाले ही हैं, मीमांसक होकर भी सत्य मीमांसा करना नहीं जानते हैं । अथवा यदि आप आत्मा को स्वसंविदित अर्थ को जानने वाला मानोगे तब तो उसी ज्ञान से अर्थ का ज्ञान हो जाने से पुनः द्वितीय करण रूप परोक्ष ज्ञान
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