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________________ ३६६ ] सहस्र भावप्रमेयापेक्षायां 4 बहिः * प्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥ ८३ ॥ सर्वसंवित्तेः " स्वसंवेदनस्य कथंचित् प्रमाणत्वोपपत्तेस्तदपेक्षायां सर्वं प्रत्यक्षं, न कश्चित्प्रमाणाभासः, सौगतानामप्यत्राविवादात् सर्वचित् चैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षमिति वचनात् । तन्निर्विकल्पकमित्ययुक्तं स्वार्थव्यवसायात्मत्वमन्तरेण प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः समर्थ 3 प्रमाणाभासनिन्हवः । [ स० प० कारिका ८३ उत्थानिका - एवं स्याद्वाद का आश्रय लेने पर कोई दोष नहीं आता है। इस बात को अगली कारिका में बताते हैं Jain Education International भाव प्रमेयापेक्षा करके, नहीं प्रमाणाभास रहे । चूंकि ज्ञान स्व-स्वरूप, संवेदन से हि प्रमाण कहे ॥ बाह्य पदार्थ प्रमेयापेक्षा, कहे प्रमाण, प्रमाणाभास । अतः नाथ ! तव मत में अंतः बाह्य तत्त्व दोनों विख्यात ॥ ८३ ॥ कारिकार्थ - हे भगवन् ! आपके सिद्धान्त में भाव ज्ञान को प्रमेय रूप से अपेक्षित करने पर प्रमाणाभास का लोप हो जाता है एवं बाह्य पदार्थ को प्रमेय रूप से अपेक्षित करने पर तो प्रमाण एवं प्रमाणाभास दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं ॥ ८३ ॥ सभी ज्ञान स्वरूप के संवेदन रूप होने से कथंचित् - सत्त्व, चेतनत्वादि आकार से प्रमाण रूप ही हैं । उस स्वसंवेदन की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । इसलिये प्रमाणाभास कुछ भी नहीं है । अर्थात् संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रूप सभी ज्ञान स्वरूप संवेदन से ज्ञान रूप ही हैं इसलिये प्रमाणाभास कुछ भी सिद्ध नहीं होता है । इस वषय में बौद्धों को भी किसी प्रकार का विवाद नहीं है । अर्थात् वे भी सभी ज्ञान को स्वसंवेदन रूप से प्रत्यक्ष मानते हैं । "सर्वचित्त चंत्तानामात्मसंवेदनम् प्रत्यक्षं" संपूर्ण चित्त और चंत्तों का आत्मसंवेदन होना ही प्रत्यक्ष है ऐसा उनका वचन है । अर्थात् ज्ञान को चित्त कहते हैं । जो उस चित्त में हर्षादिभाव होते हैं वे चैत्त कहलाते हैं । इन सभी चित्त एवं चैत्तों का स्वरूप संवेदन होना ही प्रत्यक्ष है । ऐसा उनका कथन है । 1 ता । ब्या० प्र० । 2 शुक्तिकादो रजतज्ञानं सत्यमेव स्यात् । दि० प्र० । 3 शुक्तिकाघटपटाद्यपेक्षायाम् । दि० प्र० । 4 ज्ञानं प्रत्यक्षादि वा । दि० प्र० । 5 सर्वज्ञानाम् । व्या० प्र० । 6 सत्यं प्रमाणं भवेत् । दि० प्र० । ? सर्वजज्ञानस्य स्वव्यवसायात्मकस्य कथञ्चित्प्रमाणत्वघटनात् तस्य स्वसंवेद्यस्यापेक्षायां सर्वं सत्यभूतं कश्चित्प्रमाणभासो न कस्मादत्र संवेदनस्यात्मसंवेदन प्रत्यक्षत्वयोर्व्यवस्थापने कृते सति सोगतानामपि विवादासंभवात् । कस्माद्विवादाभावः सर्वस्य ज्ञानस्य सन्तानलक्षणतत्पर्यायाणाञ्च स्वसंवेदनं प्रत्यक्षमिति सौगत सिद्धान्तात् । तत्किमित्युक्ते सौगत आह । निर्विकल्पकम् स्या० वदतीति चायुक्तम् । कस्मात्संवेदनस्य विना प्रमाणत्वं नोपपद्यत इति प्राग्बहुधा समर्थनात् । दि० प्र० । 8 ता । ब्या० प्र० । स्वार्थ व्यवसायात्मकं 9 मीमांसकं प्रत्याहुः । ब्या० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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