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________________ अन्तरंगार्थवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३८६ दोपलम्भः सहोपलम्भ इति व्याख्यायते तदा एकक्षणवतिसंवित्तीनां साकल्येन सहोपलम्भनियमाद्वयभिचारी हेतुः, तासां तथोत्पत्तेरेव सवेदनत्वात् संविदितानामेवोत्पत्तेः । द्विचन्द्रदर्शनवदिति- दृष्टान्तोपि साध्यसाधनविकलः, तथोपलम्भाभेदयोरर्थे प्रतिनियमाद्धान्तौ तदसंभवात्, संभवे तभ्रान्तित्वविरोधात् । ननु चासहानुपलम्भमात्रादभेदमात्र" एकलोली भाव-एकमेक रूप से उपलब्धि होने से सहोपलम्भ हेतु के द्वारा इन दोनों का पृथक्-पृथक् विवेचन करना अशक्य है यह हेतु भी असिद्ध ही सिद्ध किया गया है, ऐसा समझना चाहिये क्योंकि नील और नीलज्ञान का अशक्य विवेचन असिद्ध है। ये बाह्य देश एवं अन्तरंग देश से भिन्न-भिन्न प्रतीत हो रहे हैं। यदि पुनः एक काल में उपलब्ध होना "सहोपलम्भ" है ऐसा अर्थ करें तब तो एकक्षणवर्ती नानापुरुषों के नाना ज्ञान भी सम्पूर्णतया सहोपलभ नियम रूप से एक साथ उपलब्ध हो रहे हैं अतएव यह हेतु व्यभिचारी हो जावेगा क्योंकि ये भिन्न-भिन्न पुरुषों के ज्ञान एक काल में उत्पन्न होते हुये ही अनुभव में आते हैं और संविदित–अनुभूत की ही उत्पत्ति होती है। तथैव "द्विचन्द्रदर्शनवत्" यह दृष्टांत भी साध्य-साधन धर्म से निकल है क्योंकि वस्तुभूत पदार्थ अथवा स्वलक्षण में ही तथोपलम्भ हेतु एवं अभेद रूप साध्य का प्रतिनियम निश्चित है किन्तु द्विचन्द्ररूप भ्रांतिज्ञान में अभेद एवं तथोपलंभ रूप साध्य-साधन दोनों ही असम्भव हैं। यदि सम्भव है तो ऐसा मानें तब तो वह ज्ञान भ्रांतिरूप ही नहीं रह सकेगा। विज्ञानाद्वैतवादी-असहानुपलम्भमात्र हेतु अभेदमात्र साध्य को सिद्ध करना सम्भव है। भ्रांत रूप भी हेतु से साध्य को सिद्ध करना सम्भव है। द्विचन्द्र रूप अभाव में अभाव रूप साध्य 1 ज्ञान । ब्या० प्र०। 2 पुनराह स्याद्वादी हे संवेदनाद्वैतवादिन् नीलनीलज्ञानयोरभेदसाधकानुमाने द्विचन्द्रदर्शनवदिति दृष्टान्तः साध्यसाधनशून्योस्ति कुतः सहोपलंभाभेदयोयोः सत्यभूतार्थ प्रति नियमोस्ति यतः । दि०प्र०। 3 सहोपलम्भः । दि० प्र०। 4 भ्रान्तो द्विचन्द्रदर्शनादित्यत्रानर्थरूपे तो सहोपलंभाभेदी न संभवतो भ्रान्ती सत्यामपि सहोपलंभाभेदयोः संभवे सति तदा तस्य दगंतस्य भ्रान्तित्वमतर्थत्वं विरुद्धयते । दि० प्र०। 5 भ्रान्ती। दि० प्र०। 6 सहोपलम्भाभेदयोः। दि० प्र० । 7 आह योगाचारः स्वदृष्टान्तस्थापनां कुर्वनविशिष्टभेदसाधकात् । सहानुपलम्भाभावमात्रात्भ्रान्तरूपादेरपि साधनात्साध्यरूपं संभवति कस्मादभावभावयोईयोः संबन्धो न विरुद्धयते यत: तस्मात् साध्यसाधनरहितो द्विचन्द्रदर्शनवदिति दृष्टान्तो नास्तीति=स्याद्वादी वदतीति तव वचः शक्यव्यवस्थं न कस्मात् । अर्थस्वभावो नावबुद्धयत इति प्रसङ्गात् । पुनः कस्मात् । सकलज्ञान: परमाणुक्षणक्षयरहितसन्तानस्य विभ्रमस्वभावस्यानुमानात् सामस्त्येनैकत्वं प्रसजति यतः । अन्यापोहमात्रसाधनादन्यापोहमानं साध्यं सिद्ध्यति । कस्मात् । अर्थस्वभावानवबोधात् =किञ्च सकृदुपलम्भनियमाद्धेतोर्नीलतद्धियोरभेदं साधयामि । स्या० वदति सकृदुपलम्भनियमे हेत्वर्थे सत्येकस्मिन्नर्थे नर्तक्यादौ संगता प्राप्ता दृष्टिर्येषां तएकार्थसंगतदृष्टयः पुरुषाः परकीयचित्तज्ञातारो वा पुरुषाः। एकार्थ परचित्तज्ञानं वा अवश्यं न जानन्तीति हेतोसिद्धिर्न । कस्मात्रियमस्याघटनात् । दि. प्र.। 8 सहोपलम्भात्साधनात् । दि० प्र०। 9 साध्यरूपम् । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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