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________________ ३७६ ] अष्टसहस्री [ स० ५० कारिका ७६ [ विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धः विज्ञानमात्रं तत्त्वं मन्यते तस्य निराकरणं । ] अन्तरङ्गस्यैव स्वसंविदितज्ञानस्यार्थता 'वस्तुता, न बहिरङ्गस्य जडस्य प्रतिभासानहस्येत्येकान्तोऽन्तरङ्गार्थतैकान्तः । तस्मिन्नभ्युपगम्यमानेऽखिलं बुद्धिवाक्यं हेतुवादाहेतुवादनिबन्धनमुपायतत्त्वं मृषव स्यात् । यतश्च मृषा स्यादत एव प्रमाणाभासमेव, प्रमाणस्य सत्यत्वेन व्याप्तत्वात्, मृषात्वेन प्रमाणाभासस्य व्याप्तेः । तच्च प्रमाणाभासं प्रमाणाहते कथं संभवेत् ? 'तदसंभवे 'तद्व्यवहारमवास्तवमेवायं स्वप्नव्यवहारमिव संवृत्त्यापि कथं प्रतिपद्यते ? 'तज्जन्मकार्यप्रभवादि वेद्यवेदकलक्षणमनैकान्तिकमादी संवित्तिरेव खण्डशः प्रतिभासमाना व्यवहाराय कल्प्यते इत्यभिनिवेशेपि प्रमाणं मृग्यम् । न हि प्रमाणाभावे [ विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध विज्ञान मात्र तत्त्व मानता है, उसका निराकरण ] अंतरंग-स्वसंविदित ज्ञान ही वास्तविक है, किन्तु प्रतिभासित होने योग्य बहिरंग जड़ पदार्थ वास्तविक नहीं है। इस प्रकार के एकांत को 'अंतरंगार्थकांत' कहते हैं। इस एक इस एकान्त को स्वीकार करने पर हेतुवाद और आगमवाद के निमित्तभूत सभी उपायतत्त्व बुद्धि और वाक्य असत्य ही हो जावेंगे और असत्य हो जाने से वे बुद्धि और वाक्य प्रमाणाभास ही सिद्ध होंगे क्योंकि प्रमाण तो सत्यपने से व्याप्त है और प्रमाणाभास की व्याप्ति असत्य से है तथा वह प्रमाणाभास भी प्रमाण के बिना कैसे संभव होगा? उस प्रमाणाभास के असम्भव होने पर उसके व्यवहार को अवास्तविक रूप से ही आप बौद्ध स्वप्न व्यवहार के समान संवृत्ति से भी कैसे जान सकेंगे? बौद्ध-तज्जन्म कार्य प्रभवादि, वेद्यवेदक लक्षण अनेकांतिक को दिखाकर यह संवित्ति ही खण्ड-खण्ड रूप से प्रतिभासित होती हुई हम विज्ञानाद्वैतवादियों के द्वारा व्यवहार के लिये कल्पित की जाती है। जैन- इस प्रकार के अभिप्राय में भी तो प्रमाण को ढूंढना ही पड़ेगा क्योंकि प्रमाण के 1 परमार्थता । दि० प्र० । 2 यतश्च मृषव । इति पा । दि० प्र० । ब्या प्र० । 3 यत्र सत्यं तत्र प्रमाणं यत्र मृषा तत्र प्रमाणाभासमिति व्याप्तिस्तदभावे तदभावात् । दि० प्र०। 4 बुद्धिवाक्यम् । प्रमाणम् । दि० प्र०। 5 स्याद्वाद्याह अयमन्तस्तत्त्ववादी योगाचारः प्रमाणाभावे सति यथा स्वप्नव्यवहारमसत्यं तथा प्रमाण प्रमेयादिग्राह्यग्राहकादिव्यवहारमसत्यं कल्पनया कृत्वा कथं निश्चिनोत्यपितु न निश्चिनोति = अत्राह योगाचारः । अस्मन्मते संवृत्तिरेव प्रमाणं कथमित्युक्त आह । तज्जन्मकार्यप्रभवादीनां वेद्यवेदकलक्षणानां व्यभिचारं दर्शयित्वा संवित्तिरेव तज्जन्मादौ सर्वत्र विजभ्याणा व्यवहाराय घटत इति मतम् == आहुः श्रीमदकलंकदेवा इत्याग्रहेपि त्वयान्तस्तत्त्ववादिना किञ्चित्प्रमाणमवलम्बनीयं प्रमाणं विना तव निर्वाहो नास्तीति भावः । दि० प्र०। 6 प्रमाणाभास । दि० प्र०। 7 यौगापेक्षया इदं वचनं कार्यनिमित्तकारणत्वमित्यभिप्राय: । दि० प्र० । 8 कार्यकारणभाव इदं वचनं सांख्यापेक्षया । दि० प्र०। 9 एव । ग्राह्यग्राहक । दि० प्र०। 10 विज्ञानद्वैतवादी। दि० प्र०। 11 विज्ञानाद्वैतवादिना । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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