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________________ अथ षष्ठः परिच्छेदः । *- -X जैनेंद्रवक्त्रांबुजनिर्गता या, भव्यस्य माता हित देशनायां अनंतदोषान् क्षपितुं क्षमापि, तनोतु सा मे वरबोधिलब्धिम् ||१|| पुष्यद कलङ्कवृत्ति समन्तभद्रप्रणीततत्त्वार्थाम् । निजितदर्णय वादामष्टसहस्रीमवैति सदृष्टि: 4 ॥ 2 6 सिद्धं चेद्धेतुतः सर्व' न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिद्धं 'चेदागमात्सर्वं ' "विरुद्धार्थम" तान्यपि 10 3 Jain Education International 14 अर्थ - जिनेंद्र भगवान् के मुख कमल से निकली हुई जो वाणी है वह भव्य जीवों को हितकर उपदेश देने में माता के समान ही है । वह भव्यों के अनंत दोषों को भी नष्ट करने में समर्थ है ऐसी वह जिनवाणी मुझे उत्तम बोधि- रत्नत्रय का लाभ प्रदान करे । (यह मंगलाचरण श्लोक अनुवादकर्त्री द्वारा रचित है ) ॥ ७६ ॥ श्लोकार्थ -- अकलंक - निर्दोष अर्थ को पुष्ट करने वाली अथवा अकलंकदेव द्वारा रचित अष्टशती नाम की टीका को पुष्ट करने वाली एवं समंतभद्र - कल्याण स्वरूप तत्त्वों के अर्थ का प्रणयन करने वाली अथवा श्री समंतभद्रस्वामी द्वारा रचित देवागमस्तोत्र से तत्त्वों के अर्थ का प्रतिपादन करने वाली इस अष्टसहस्री नाम की टीका को सम्यग्दृष्टिजन दुर्नयवाद को जीतने वाली समझते हैं ॥१॥ 1 पुष्यन्ती पुष्टा भवन्तीत्यर्थः । ब्या० प्र० । 2 ता । बसः । ब्या० प्र० । 3 अक्तु । इति पा० । ब्या० प्र० । 4 साक्षात्सम्यग्दृष्टिरेव जानाति न तु मिथ्यादृष्टिः । दि० प्र० । 5 इह हीत्याद्यारभ्य चार्वाकादिवदित्यन्तो ग्रन्थः कारिकायाअवतारो दृष्टव्य । दि० प्र० । 6 अनुमानादेव । दि० प्र० । 7 उपादेयत्वम् । दि० प्र० । 8 आदिभूतात्प्रत्यक्षादिति संबन्धो ज्ञेयोनुमानात्प्रथमकथिता । दि० प्र० । 9 शास्त्रोपदेशादेव । दि० प्र० । 10 उपादेयत्वम् । दि० प्र० । 11 परस्पर । दि० प्र० । 12 बोद्धनैयायिक सांख्यादीनामागमादेव सिद्धानि भवेयुः ननु प्रत्यक्षादिना । दि० प्र० । 13 अपि सम्भावनायाम् । दि० प्र० । 14 स्याद्वादी वदति । हे हेतुवादिन् ! यदि सर्वं लौकिकोपायतत्त्वं परीक्षिकोपायतत्त्वञ्चानुमानात्सिद्धं तदा तव प्रत्यक्षागमादिदर्शनाभावेऽनुमानं नोदेति । अथवा हे आगमवादिन् यदि आगमवलात्सर्वं सिद्धं तदा चार्वाकादीनि विरुद्धार्थमतानि अपि सिद्धानि सर्वेषां स्वस्वागमप्रतिपादकत्वात् । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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