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________________ ३४८ ] अष्टसहस्री [ पं० प० कारिका ७५ कर्ता का स्वरूप कर्म की अपेक्षा नहीं रखता, अन्यथा कर्ता के स्वरूप का अभाव हो जाने से कर्म के स्वरूप का भी अभाव हो जायेगा । एवं कर्ता का व्यवहार कर्म के व्यवहार की अपेक्षा अवश्य रखता है। क्योंकि कर्म के निश्चयपूर्वक ही कर्ता जाना जाता है । इत्यादि - सप्तभंगी प्रक्रिया १. कथंचित् धर्म-धर्मी आपेक्षिक हैं क्योंकि वैसा व्यवहार देखा जाता है। २. कथंचित् धर्म-धर्मी स्वरूप की अपेक्षा से अनापेक्षिक सिद्ध हैं क्योंकि इनका स्वरूप पूर्व से ही प्रसिद्ध है। ३. कथंचित् उभयात्मक हैं क्योंकि अपेक्षा-अनापेक्षा दोनों ही विवक्षित हैं । ४. कथंचित् अवक्तव्य हैं क्योंकि युगपत् दोनों की अपेक्षा है। ५. कथंचित् आपेक्षिक और अवक्तव्य है क्योंकि क्रम से अपेक्षा की एवं युगपत् की विवक्षा ६. कथंचित् अनापेक्षिक अवक्तव्य हैं क्योंकि स्वरूप की अपेक्षा एवं युगपत् दोनों की विवक्षा ७. कथंचित् आपेक्षिक, अनापेक्षिक अवक्तव्य हैं क्योंकि क्रम और अक्रम से उभय की अपेक्षा इस तरह से कथंचित् अपेक्षा अनापेक्षाकृत सिद्धि होती है। इस प्रकार से पांचवां परिच्छेद पूर्ण हुआ। सार का सार-बौद्ध धर्म और धर्मी को अपेक्षाकृत ही सिद्ध मानता है। और योग धर्मधर्मी को अपेक्षा रहित अलग-अलग ही मानता है। जीव धर्मी है और ज्ञान आदि उसके धर्म हैं । ये धर्म-धर्मी परस्पर में एक-दूसरे की अपेक्षा लेकर ही धर्म-धर्मी कहलाते हैं। धर्म न हो तो धर्मी कैसे बनेगा और धर्मी न हो तो उसका धर्म कहाँ से आयेगा। किन्तु ये ही धर्म-धर्मी अपने-अपने स्वरूप से स्वतः सिद्ध हैं। जीव का स्वरूप है चैतन्य और ज्ञान का स्वरूप है जानना। इन अपनेअपने स्वरूप से दोनों-एक-दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं । अतः स्याद्वाद में दोनों बातें ठीक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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