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________________ ३१६ ] अष्टसहस्री [ च० प० कारिका ७१.७२ [ द्रव्यपर्याययोः कथंचित् भेदाभेदी स्तः । गुणिसामान्यो पादानकारणानां द्रव्यशब्दाद्ग्रहणम् । गुणव्यक्ति कार्यद्रव्याणां पर्यायशब्दात् । तदेव द्रव्यपर्यायावेकं वस्तु, प्रतिभा'सभेदेप्यव्यतिरिक्तत्वात् । यत्प्रतिभा'सभेदेप्यव्यतिरिक्तं तदेकं, यथा वेद्यवेदकज्ञानं रूपादिद्रव्यं वा10 मेचकज्ञानं वा। तथा च द्रव्यपर्यायौ न व्यतिरिच्यते । तस्मादेकं वस्त्विति मन्तव्यम् । पर्यायाद वास्तवाव्यतिरिक्तमेव द्रव्यं वास्तवमेकेषाम् । द्रव्यादवास्तवाव्यतिरिक्त एव पर्यायो वास्तवः परेषाम् । ततोऽ [ द्रव्य और पर्याय में कथंचित् भेद और अभेद दोनों सिद्ध हैं ] गुणी, सामान्य और उपादान कारणों को द्रव्य शब्द से ग्रहण किया गया है एवं पर्याय शब्द से गुण, व्यक्ति, कार्य, द्रव्यों को ग्रहण किया है। इस प्रकार से द्रव्य पर्यायरूप एक वस्तु है; क्योंकि प्रतिभास भेद होने पर भी ये दोनों अभिन्न हैं, भिन्न नहीं हैं। __जो प्रतिभास भेद होने पर भी अभिन्न हैं वे एक हैं; जैसे-वेद्य वेदकज्ञान अथवा रूपादि द्रव्य या मेंचक-चित्रज्ञान । और उस प्रकार से द्रव्य पर्याय भिन्न-भिन्न नहीं हैं। इसलिए वे एक वस्तु हैं, ऐसा मानना चाहिये । अद्वैतवादी-पर्यायें अवास्तविक हैं, उन पर्यायों से भिन्न द्रव्य एक हैं वही वास्तविक हैं । ऐसा हम ब्रह्माद्वैतवादी मानते हैं। __ सौगत-द्रव्य नाम की कोई चीज वास्तविक नहीं है, किन्तु पर्यायें ही वास्तविक हैं इस प्रकार से हम सौगतों की मान्यता है । ___अद्वैतवादी और सौगत-इसलिए 'प्रतिभासभेदेऽव्यतिरिक्तत्वात्' आपका यह हेतु असिद्ध है। जैन-ऐसा नहीं करना चाहिये। उन द्रव्य और पर्याय में से किसी एक का आभाव करने पर अर्थक्रिया लक्षण कार्य नहीं बन सकता है। तथाहि । 'पर्याय निरपेक्ष केवल द्रव्य अर्थक्रिया निमित्तक 1 द्रव्यसामान्यमूर्द्धतेत्यर्थः । ब्या० प्र० । 2 खण्डमुण्डादि । ब्या० प्र० । 3 घटादि । ब्या० प्र० । 4 तस्मात् । ब्या० प्र०। 5 एवविधद्रव्यपर्यायो । दि० प्र०। 6 द्वन्द्वः । ब्या०प्र० । 7 अव्यतिरिक्तमसिद्ध प्रतिभासभेदसद्भावादित्याशंकापनोदार्थमिदं विशेषणम् । दि० प्र० । 8 विवेचयितुमशक्यत्वात् । दि० प्र० । 9 द्रव्यपर्यायी पक्षः, एक वस्तु भवतीति साध्यो धर्मः प्रतिभासभेदेप्यव्यतिरिक्तत्वात् । ययोः प्रतिभासभेदेप्यतिरिक्तत्वं तयोरक्यं यथा वेद्य वेदकावेकमेव ज्ञानं रूपरसादयो एकमेव द्रव्यं वा द्रव्यपर्यायो न व्यतिरिच्यते च तस्मादेकं वस्तु स्याद्वादी वदति हे भेदवादिन् ! इत्यनुमानेनाभेदात्मकं वस्तु ज्ञातव्यम् । दि० प्र० । 10 रूपादिद्रव्यं वा तथा च । द्रव्यपर्यायो । इति पा० । ब्या०प्र० । 11 असत्यभूतात्पर्यायात् सत्यभूतं द्रव्य भिन्नमेव । एकेषां सांख्यानां मतम् = असत्यभूतान्द्रव्यात्सत्यभूतः पर्यायो भिन्न एव परेषां सौगतानामिति मतं स्याद्वाद्याह यत एव ततः हे अभेदवादिन् ! प्रतिभासभेदेप्यव्यतिरिक्तत्वादिति हेतुः असिद्धो न ज्ञेयः किन्तु सिद्ध एव कुतः तयोर्द्रव्यपर्याययोर्मध्ये एकतरस्याभावेऽर्थक्रिया नोपद्यते यतः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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