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________________ भेद एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २६६ संयोगो हि वृत्तिरर्थान्तरभूतयोरेव प्रतीयते नान्यथेति न मन्तव्यं, संयोगिनोः 'संयोगपरिणामात्मनोः सर्वथान्यत्वासिद्धेरन्यथा तदभावप्रसङ्गात् । ताभ्यां भिन्नस्य संयोगस्योत्पत्तौ हि कथमेकस्यान्यत्र संयोग इति व्यपदेशो यतः स एव वृत्तिः स्यात् ? ताभ्यां तस्य जननात्तथा व्यपदेश इति चेन्त, कर्मणा कालादिना च तज्जननात्तथा व्यपदेशप्रसङ्गात् । तयो समवायिकारणत्वात्तस्य तथा व्यपदेश इति चेत्कुतः समवायिकारणत्वं तयोरेव न पुनः कर्मादेरिति नियमः ? इह संयोगिनोः संयोग इति प्रत्ययात्तत्र तस्य समवायसिद्धेरिति चेत्स तहि समवायः पदार्थान्तरं कथमत्र वेहेदमिति प्रत्ययं कुर्यान्न पुनः कर्मादिषु भेदाविशेषेपीति न योग-ऐसा आप जैनियों को नहीं मानना चाहिये । संयोगी-स्थाली और दही ये दोनों संयोग परिणामस्वरूप हैं। इन में सर्वथा भिन्नपना असिद्ध है, अन्यथा संयोग का हो अभाव मानना होगा। जैन-उन दोनों से स्थाली और दही से भिन्न रूप संयोग की उत्पत्ति को मानने तो पर दही का स्थाली में संयोग है । यह कथन भी कैसे बन सकेगा कि जिससे वह संयोग ही वृत्ति रूप हो सके ! अर्थात नहीं हो सकता है। योग-उन दोनों संयोगी के द्वारा वह संयोग उत्पन्न होता है । अतः यह इन दोनों का संयोग है ऐसा कथन बन जाता है। जैन-यदि ऐसा कहो तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि आपके द्वारा स्वीकृत उत्क्षेपक्ष आदि कर्म और कालादिकों के द्वारा वह संयोग उत्पन्न होता है। तो पुनः उस प्रकार से स्थाली में कर्मादि का अथवा कालादि का यह संयोग है ऐसा कथन भी किया जा सकेगा। योग-वे दोनों स्थाली और दही तो संयोग के प्रति समवायी कारण हैं अतएव संयोग में उस प्रकार का अर्थात् स्थाली और दही इन संयोगी का यह संयोग है, ऐसा व्यपदेश ठीक है। जैन-यदि ऐसा कहो तो उन थाली और दही में ही समवायी कारण हैं किंतु कर्मादि में नहीं हैं यह नियम भी कैसे बन सकेगा ? योग-इन दोनों संयोगियों का यह संयोग है। इस प्रकार का ज्ञान पाया जाता है। इसलिये वहां उसका समवाय सिद्ध है। जैन-यदि ऐसा कहो तब तो यह हमारी समझ में नहीं आता है कि वह समवाय संयोगीस्थाली और दही रूप दो पदार्थों से भिन्न रूप अर्थांतर ही है फिर भी इन संयोगियों में ही वह संयोग लक्षण "इहदे" प्रत्यय होवे, किन्तु कर्मादिकों में न होवे यह कैसे बनेगा? जबकि भेद दोनों जगह ही समान हैं। 1 स्वरूपम् । ब्या प्र० । 2 समवायित्वम् । इति पा० । ब्या० प्र० । 3 भिन्नत्वाविशेषात् । दि० प्र०। 4 अत्रव । इति पा० । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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