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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग
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२५६
नित्यायेकान्तगर्तप्रपतन विवशान प्राणितोऽनर्थसार्थादुद्धर्तुं नेतुमुच्चैःपदममलमलं मङ्गलानामलङ्घयम् । स्याद्वादन्यायवर्ती प्रथयदवितथार्थं वचः' स्वामिनोऽद: प्रेक्षावत्त्वात्प्रवृत्तं' जयतु विघटिताशेषमिथ्याप्रवादम् ॥१॥
इत्याप्तमीमांसालंकृतौ तृतीयः परिच्छेदः ।३।
श्लोकार्थ-नित्य, अनित्य आदि एकांत मार्ग रूप गड्ढे में पड़े हुये पराधीन प्राणियों को अनर्थ समूह से निकालने के लिये तथा अमल उच्च-उत्कृष्ट पद में ले जाने के लिये जो समर्थ हैं, सभो मंगलों में उत्कृष्ट मंगल-स्वरूप, स्याद्वाद न्याय मार्ग को प्रसिद्ध करने वाले, सत्य अर्थ को कहने वाले एवं अशेष मिथ्या मत के प्रवाद को विघटित करने वाले हैं। ऐसे प्रेक्षावान, श्री स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य के वचन प्रवृत हुये हैं ये वचन हमेशा इस पृथ्वी पर जयशील होवें।
इस प्रकार आप्त मीमांसा की अलंकृति में तृतीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।॥३॥
दोहा सांख्य बौद्ध के तत्त्व हैं, नित्य क्षणिक एकांत । जो जिनवच में नित रमें, पावें सौख्य अनंत ।।१।।
इस प्रकार 'अष्टसहस्री' नामक जैनदर्शन ग्रंथ में आर्यिका ज्ञानमतीकृत अनुवाद, पद्यानुवाद, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश सहित इस 'स्याद्वाद चितामणि' नामक टीका में
यह तृतीय परिच्छद पूर्ण हुआ।
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1 एव । दि० प्र० । 2 भा। दि० प्र० । 3 पराधीनान् । दि० प्र०। 4 दुःख । दि० प्र० । 5 समर्थ । दि० प्र० । 6 कथयत् । दि० प्र०। 7 नित्यत्वैकान्तपक्षेपीत्यादि । ब्या० प्र० । 8 एतत् प्रत्यक्षीभूतम् । ब्या० प्र०। 9 विचारपूर्वकत्वात् । दि० प्र०।
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