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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ २५७ उपादान का पूर्वाकार से क्षय होना ही कार्य का उत्पाद है और वह नियम से एक हेतुक है । अर्थात् उपादान का क्षय ही उपादेय का उत्पाद है।
इस पर योग का कहना है कि उपादान घट का विनाश बलवान पुरुष के मुद्गर के अभिघात से हुआ है वह अवयव के विभाग से एवं संयोग के विनाश से ही है किन्तु उपादेय कपाल को उत्पत्ति तो अपने आरंभक परमाणुओं के संयोग से हुई है । अतएव उन दोनों के हेतु भिन्न-भिन्न ही हैं, एक नहीं हैं। क्योंकि अवयवों के विभाग से और अवयवों के संयोग का नाश होने से घड़ा फूट गया है ।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार की नाशोत्पाद प्रक्रिया देखने में नहीं आती है, प्रत्युत बलवान् पुरुष के मुद्गर से ही घड़े का फूट ना और कपाल होना एक साथ देखा जाता है । तथा महास्कंध रूप घट के विनाश से लघु स्कंध रूप कपालों की उत्पत्ति देखी जाती है । क्योकि "भेदसंघातेभ्यउत्पद्यते" ऐसा सूत्रकार का वचन है । अतः परमाणु से ही स्कंध होता है ऐसा मानना ठीक नहीं है । यदि कोई उत्पाद, विनाश में सर्वथा अभेद ही कहे तो भी हमें इष्ट नहीं है। क्योंकि लक्षण भेद से दोनों कथंचित् भिन्न भी हैं। सुख और दुःख के समान स्वरूप के लाभ को उत्साद एवं स्वरूप से प्रच्युति को नाश कहते हैं अतः लक्षण भेद सिद्ध है।
उसी प्रकार से उत्पादादि तीनों ही भिन्न-भिन्न लक्षण वाले होने से कथंचित् भिन्न हैं। जैसे एक बिजौरे में रूप, रसादि । परस्पर में अनपेक्ष उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य आकाशपुष्पवत् अस्तित्व शून्य हैं । केवल उत्पाद नहीं है । क्योंकि स्थिति विनाश से रहित है। केवल स्थिति या विनाश भी असंभव है । एवं तीनों पृथक-पृथ्क सत् रूप ही नहीं हैं। क्योंकि तीनों से युक्त एक जात्यंतर वस्तु ही सत् रूप है।
इसी बात को लौकिक एवं पारमाथिक उदाहरण द्वारा आचार्य पुष्ट करते हैं कि घटार्थी को घट के नाश से शोक, मुकुटार्थी को मुकुट के उत्पाद से प्रमोद एवं सुवर्णार्थी को दोनों ही अवस्थाओं में सुवर्ण के रहने से माध्यस्थ भाव होता है। तथा मनुष्यों के ये विषादादि भाव निहतुक नहीं हैं।
यदि आप बौद्ध-वासना से उन्हें माने एवं वासना के प्रबोधक कारणों का नियम मानें तब तो उनका हेतु निश्चित ही रहा। वासना के प्रबोधक कारण परंपरा से शोकादि के बहिरंग हेतु हैं। अंतरंग हेतु मोहनीय कर्म की प्रकृति विशेष का उदय ही है। आपने इन दोनों हेतुओं को "वासना" यह नाम दे दिया।
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