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________________ २४६ ] अष्टसहस्र [ तृ० प० कारिका ५६ "त्यक्तात्यक्तात्मरूपं यत्पूर्वापूर्वेण वर्तते । कालत्रयेपि तद्द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ॥ १॥ यत्स्वरूपं त्यजत्येव यन्न त्यजति सर्वथा । तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिकं शाश्वतं यथा ॥ २ ॥ इति । ततो न तन्तुविशेषाकारः पटस्योपादानं येनाल्पपरिमाणादेव कारणान्महापरिमाणस्य पटस्योत्पत्तेरुदाहरणं साध्यशून्यं न भवेत् । हेतुश्चानैकान्तिकः, प्रशिथिलावयवमहापरिमाणकार्पासपिण्डादल्पपरिमाण निबिडावयवकार्पासपिण्डोत्पत्तिदर्शनात् । विरुद्धश्चायं हेतु:, पुद्गलादिद्रव्यस्य महापरिमाणस्य यथासंभवं सूक्ष्मरूपेण स्थूलरूपेण वा पर्यायेण वर्तमानस्य" स्वकार्यारम्भकत्वदर्शनात् कार्यत्वस्य महापरिमाणकारणारब्धत्वेन व्याप्तिसिद्धेः श्लोकार्थ - जो पूर्व रूप से व्यक्त और अपूर्व रूप से अव्यक्त हैं। तीनों कालों में भी वह द्रव्य उपादेय है ऐसा समझना चाहिये ||१|| जो द्रव्य सर्वथा अपने स्वरूप को छोड़ता है और सर्वथा अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है वह द्रव्य पदार्थ का उपादान नहीं बन सकता है, जैसे बौद्धों का माना क्षणिक द्रव्य और साख्यों का माना नित्य द्रव्य किसी का भी उपादान नहीं बन सकता है ॥२॥ इसलिये तन्तु विशेष का आकार - वस्त्र के प्रति उपादान नहीं है कि जिससे अल्प परिणाम वाले तन्तु आदि से ही महा परिमाण वाले वस्त्र की उत्पत्ति हो सके और आपका उदाहरण साध्य शून्य न होवे | अर्थात् अल्प परिमाण वाले उपादान रूप तन्तु से महा परिमाण वाले वस्त्र नहीं बन सकते हैं । अतः आपका उदाहरण साध्य शून्य ही है और आपका 'कार्यत्वात्' हेतु भी अनेकांतिक ही है क्योंकि शिथिल अवयव वाले महा परिमाण रूप कार्पास - रुई के पिण्ड से अल्प परिमाण वाले निविड़सघन अवयव रूप रुई के पिण्ड की उत्पत्ति देखी जाती है । यह हेतु विरुद्ध भी है । महा परिमाण वाले पुद्गलादि द्रव्य यथासम्भव सूक्ष्म पर्याय रूप से अथवा स्थूल पर्याय रूप से वर्तमान रहते हुये अपने-अपने सूक्ष्म और स्थूल रूप कार्य को करने वाले देखे जाते हैं । कार्यत्व हेतु की महा परिमाण कारण से आरब्ध होने के साथ व्याप्ति सिद्ध है । अतः यह हेतु स्वपरिमाण से भी अल्प परिमाण रूप कारण के आरम्भ रूप विपरीत साध्य को ही सिद्ध कर देने से यह 'कार्यत्वात्' हेतु विरुद्ध भी है । इसलिये यह आपका अनुमान बाधक नहीं है । 1 कथञ्चित् = त्यक्तात्यक्तात्मरूपं किमित्युक्ते यद्वस्तुस्वरूपं सर्वथा त्यजति । यथा सौगतमते । पुनर्यद्वस्तुस्वरूपं सर्वथा न त्यजति यथा सांख्यमते अर्थस्य वस्तुनः कार्यस्य तद्वस्तूपादानकारणं न भवति । पूर्वपक्षे सर्वथा क्षणिकम् । उत्तरपक्षे सर्वथा शाश्वतमिति । तहि उपादानं किं पूर्वाकारेण त्यक्तरूपमुत्तराकारेणाव्यक्तरूपमुभयत्रानुगतत्वमिति कथञ्चित् त्यक्तात्यक्तात्मरूपं वस्तुकालत्रयेपि यद्भवति तद्द्रव्यमुपादानमितिज्ञेयम् । दि० प्र० । 2 द्रव्य । पर्याय । ब्या० प्र० । 3 नित्यम् । व्या० प्र० । 4 यत एवं ततः पटस्य स्वपरिमाणादल्पपरिमाणास्तं तवस्तन्तुविशेषाकारः स च पटस्योपादानं कारणं न भवतीत्यर्थः । दि० प्र० । 5 त्रैलोक्यव्यापिपुद्गलः । व्या० प्र० । 6 एवंविधपर्याये वर्तमानस्य पुद् गलद्रव्यस्यैव वा स्वकार्यारम्भत्वदर्शनात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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