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अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ५८
मिथ्यैवेदं दर्शनं' सूत्रकारवचनं च बाधकसद्भावादिति चेत्किं तद्वाधकम् ? 2 स्वपरिमाणादणुपरिमाणकारणारब्धानि कपालानि कार्यत्वात्पटवदित्यनुमानं 'बाधकमिति चेन्न, एतदुदाहरणस्य साध्यविकलत्वात् । तन्तवो हि किमपटाकारपरिणताः पटस्य समवायिनः पटाकारपरिणता' वा ? न तावदाद्य: पक्ष: पटाकारापरिणतेषु तन्तुष्विह ' पट' इति प्रत्ययासंभवात् । द्वितीयपक्षे तु न पटपरिमाणादणुपरिमाणास्तन्तवः पटस्य कारणं, तेषां पटसमानपरिमाणतया प्रतीतेः समुदितानामेवातानवितानाकाराणां पटपरिणामाश्रयत्वादन्यथातिप्रसङ्गात् । न हि तथाऽपरिणतं तद्भवति तद्भावः परिणामः" इति वचनात् ।
इसमें आदि का पक्ष तो ठीक नहीं है । क्योंकि पटाकार से परिणत नहीं हुये तंतुओं में 'पट' इस प्रकार का ज्ञान ही नहीं हो सकता है । तथा दूसरे पक्ष में तो पट परिमाण से अणु प्रमाण वाले तंतुपट के कारण नहीं हैं क्योंकि उन तंतुओं की तो पट के समान प्रमाण रूप से प्रतीति आ रही है । आतान वितान रूप आकार को धारण करने वाले पट बनने के उन्मुख हुये समुदित तंतु पट बनने के लिये उस पट के प्रमाण का ही आश्रय लिए हुए हैं । अन्यथा पिटारे में रखे हुए तंतुओं से भी पट बन जाने से अतिप्रसंग दोष आ जायेगा । क्योंकि उस रूप से अपरिणत उस रूप ही नहीं हो सकता है । " तद्भावः परिणामः ।" ऐसा सूत्रकार का वचन है । अर्थात् पटस्वरूप से अपरिणत तंतु पट रूप नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार की मान्यता से परिणाम और अपरिणामी में अभेद है । ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि यह पट परिणाम है और ये तंतु परिणामी हैं । इस प्रकार से ज्ञान के भेद से परिणाम और परिणामी में कथंचित् भेद सिद्ध है । यदि आप योग भी प्रत्यय के भेद से परिणाम और परिणामी 'भेद स्वीकार कर लेवें तब तो विवाद का अभाव ही हो जाता है । तथा तन्तु द्रव्य और पट पर्याय अन्वयव्यतिरेक प्रत्यय पाया जाता है ।
तंतु द्रव्य पहले के अवस्त्राकार का परित्याग करके वस्त्राकार रूप से परिणत होता हुआ उपलब्ध हो रहा है आकार) से भिन्न ही है । इस प्रकार से सिद्ध हो जाता है । भी अर्थात् तंतु रूप से भी अपने रूप को छोड़कर अपूर्वरूपवर्ती तंतुपिंड में ही उपादानपने का अयोग
तंतुपने का त्याग न करता हुआ अपूर्व इसलिये वस्त्राकार तो पूर्वाकार (तंतु के सर्वथा - पर्याय रूप के समान द्रव्य रूप से
1 स्याद्वादिमतमसत् । दि० प्र० । 2 कार्य परिमाणात् । ब्या० प्र० । 3 अल्प | ब्या० प्र० । 4 उपादान पूर्वाकारेण क्षयः पक्षः कार्योत्पादो भवतीति साध्यो धर्म इति स्याद्वादिकृतस्यानुमानस्येदं मया योगेन कृतमनुमानं बाधकमिति चेत् । व्या० प्र० । 5 पटाकारपरिणतेष्वातानाकारं रहिततया उडकादि रूपेण स्थितेषु पटसमवायो भवति वा । तथा परिणतेषु वेत्यभिप्रायो विकल्पद्वयस्य । दि० प्र० । 6 इहपट समवायो भवतीति तद्भाव एतेन प्रतिवाद्य सिद्धिमुदाहरणमित्युक्तं जातम् । दि० प्र० 1 7 रण्डाकरण्डस्थादिषु तन्तुषु । दि० प्र० । 8 अन्यथाऽसमुदिता अनातानवितानाकारास्तंतवः पटपरिणाममाश्रयन्ति चेत्तदा अतिप्रसङ्गः स्यात् । दि० प्र० । 9 समुदितानामेव पटपरिणामाश्रयत्त्वमेवेति व्यतिरेकमुखेन भावयन्नाह । व्या० प्र० । 10 कारणस्य कार्याकारेण भवनं भावः स एव परिणाम इत्येनेन प्रकारेण | ब्या० प्र० ।
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