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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ २३७ स्थितेः, तस्य प्रमाणप्रत्ययगोचरत्वात्, सहैकत्रोदयादि सदिति प्रतिपादनात्, तथैव' "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति सूत्रकारवचनात् । न चेदं युक्तिरहितं, तथा युक्तिसद्भावात् ।
[ प्रत्येक वस्तु चलाचलस्वरूपमित्यस्य समर्थन । ] चलाचलात्मकं वस्तु कृतकाकृतकात्मकत्वादिति । न चात्र हेतुरसिद्धः, पूर्वरूपत्यागाविनाभाविपररूपोत्पादस्यापेक्षितपरव्यापारत्वेन कृतकत्वसिद्धेः, सदा स्थास्नुस्वभावस्यानपेक्षितपरव्यापारत्वेनाकृतकत्वनिश्चयात् । न हि चेतनस्यान्यस्य वा सर्वथोत्पत्तिः, सदादि
इन प्रश्नों का उत्तर देते हुये आचार्य कहते हैं कि सामान्य रूप से वस्तु उत्पत्ति, विनाश से रहित होने से स्थिति मात्र है। जैसे घट का मृतिका रूप तथा विशेष पर्याय की अपेक्षा से वस्तु उत्पन्न भी होती है, विनष्ट भी होती है, इसलिये वस्तु विशेष रूप पर्याय के अनुभव से उत्पाद विनाश रूप ही है । जैसे घट का उत्पाद, मृत्पिड का विनाश ।
इस प्रकार से वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करने वाले नय हैं। किंतु प्रमाण की अपेक्षा से वस्तू समुदित उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप त्रयात्मक ही है। अतः इस स्यादाद की मान्यता में कोई बाधा नहीं आती है।
यह उपर्युक्त कथन युक्ति रहित भी नहीं है क्योंकि इस प्रकार की युक्तियों का भी सद्भाव
[ प्रत्येक वस्तुयें चल और अचल रूप हैं, इसका समर्थन । ] सभी वस्तुयें चलाचलात्मक हैं क्योंकि कृतक अकृतक रूप हैं। अर्थात् चल शब्द से उत्पाद, विनाशाकार लेना एवं अचल शब्द से स्थिति को लेना।
यह "कृत काकृतकात्मकत्वात्" हेतु असिद्ध भी नहीं है। पूर्वाकार त्याग के साथ अविनाभावी उत्तराकार का उत्पाद है । इसलिये पर व्यापार की अपेक्षा रखने से कृतकत्व सिद्ध है एवं द्रव्य रूप से सदा स्थास्न स्वभाव में पर व्यापार की अपेक्षा न होने से अकृतत्व निश्चित है। अर्थात पूर्व के आकार का नष्ट होना और उत्तराकार का उत्पन्न होना आदि पर्यायें काल, अणु आदि पर की अपेक्षा रखती हैं और स्थिति द्रव्य रूप होने से पर की अपेक्षा नहीं रखती है । चेतन अथवा अचेतन
1 सहैव । ब्या० प्र० । 2 स्थित्यादिप्रकारेण । ब्या० प्र० । 3 स्याद्वादी वदति आत्मनः परमाणोर्वा सौगताभ्युपगता सर्वथा उत्पत्तिर्वस्तुनो नहि कुतः सदादिसामान्यस्वभावेन । विद्यमानस्यवोत्पादविनाशलक्षणातिशयान्तरदर्शनात् । यथा घटस्य । घटयोग्यमद्रव्यादिस्वरूपेण सत एव घटपर्याय उपलभ्यते पुनः कस्मात्स्थितिमतः कथञ्चिदुत्पादविनाशात्मकमित्यादिसंबंध्यम = तथा चेतनस्याचेतनस्य वा सौगताभ्युपगतो सर्वथा विनाशोपि न । कुतः। ततः पूर्वहेतुत्वादेव । तद्वत् घटस्य यथा। तथा सांख्याभ्युपगता वस्तुनः सर्वथा स्थितिरपि २ । कस्मात् । पर्यायाकारेण उत्पादविनाशसहितस्यैव वस्तुनः सदादिसामान्येन स्थितिदर्शनात् यथा घटयोग्यमृद्रव्यादिकारणघटस्य = इत्येवं वस्तुनः स्थितिभिन्ना । उत्पादविनाशो भिन्नौ संबध्यते । दि० प्र० ।
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