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________________ विसदृशकार्योत्पादसहेतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २०७ पक्षे 'स्थाप्यस्थापकविनाश्यविनाशकभाववद्धेतु फलभावविरोधात्कुतः सहेतुकोत्पत्तिरहेतुका वा ? स्थितिविनाशवत् द्वितीयपक्षे तु,--- 'स्कन्धसन्ततयश्चैव संवृतित्वादसंस्कृताः'। "स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां न स्युः खरविषाणवत् ॥५४॥ उत्थानिका -पूर्व कारिका में सौगत ने कहा था कि विसदृश कार्य को करने के लिये हेतु का समागम होता है अतः अब यहाँ यह प्रश्न हो जाता है कि आप क्षणिकैकांतवादियों के यहाँ परमाणु क्षण उत्पन्न होते हैं या स्कंध समितियाँ ? बौद्धों की स्कंध संततियां कही गई हैं असंस्कृतरूप । क्योंकि वे संवृतिरूप हैं नहिं परमार्थभूत सत्रूप ॥ रूप, वेदना, विज्ञान अरू संज्ञा संस्कार पांच स्कंध । व्यय, उत्पाद, ध्रौव्य उनमें नहिं घट सकता जैसे खरशृंग ॥५४॥ प्रथम पक्ष में तो स्थाप्य-स्थापक, विनाश्य-विनाशक भाव के समान हेतु फल भाव का विरोध हो जाने से उत्पत्ति सहेतुक है या अहेतुक यह कैसे बन सकेगा? जैसे कि स्थिति और विनाश में नहीं बन सकता है । अर्थात्-पूर्व क्षण स्थापक है और उत्तरक्षण स्थाप्य है। उत्तरक्षण विनाशक है और पूर्व क्षण विनाश्य है । एवं जिस प्रकार से परमाणुओं में स्थाप्य, स्थापकादि भाव विरुद्ध हैं उसी प्रकार से कारण कार्य भाव भी विरुद्ध हैं और कार्य-कारण भाव के अभाव में यह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य धर्म भी विरुद्ध हो जाते हैं क्योंकि आप बौद्धों ने परमाणुओं को निरंश रूप माना है। ___"न हेतुफलभावादिरन्यभावादनन्वयात्" इस कारिका में कार्य-कारण भाव का तो हमने पहले ही खण्डन कर दिया है। जैसे कि स्थाप्य-स्थापक के अभाव में स्थिति का अभाव है और विनाश्य-विनाशक भाव के अभाव में विनाश का भी अभाव है उसी प्रकार से परमाणुओं में कार्यकारण भाव का अभाव होने से उत्पत्ति सहेतुक है या अहेतुक ? यह कुछ कहा नहीं जा सकता है। और यदि द्वित्तीय पक्ष लेते हैं कि स्कंध संततियाँ ही बौद्धों के मानी हैं तब तो आचार्य उसी का खण्डन करते हुये आगे की कारिका कहते हैं। 1 उत्तरक्षणो विनाशकः पूर्वक्षणो विमाश्यः यद्भावे कार्यस्य नियता विपत्तिः प्रध्वंस इति वचनात् । दि० प्र० । 2 कार्यकारणभावः एतेस्थित्युत्पत्तिव्ययधर्मा विस्यद्धन्ते निरंशत्वात परमाणनां न हेतफलभावादि दिति कार्यकारणभावस्य प्रागेव निरस्तत्वाद्वा विरोधोवगन्तव्यः । दि० प्र०। 3 परमाणोः सकाशात्परमाणोरुत्पत्त्यदर्शनात् । ब्या० प्र० । 4 रूपरसगन्धस्पर्शपरमाणवः सजातीयविजातीयव्यावृत्ताः परस्परा संबन्द्धा रूपस्कन्धाः (1. सूखदुःखादयोर्वेदनास्कन्धा: 2. सविकल्पकनिर्विकल्पक ज्ञानानि विज्ञानस्कन्धा: 3. वक्षादिनामानि संज्ञास्कन्धा 4. ज्ञानपुण्य पापवासनाः संस्कारस्कन्धा: 5. इति पञ्च स्कन्धाः बौद्धमते । दि० प्र०) 5 ज्ञानसन्तानाः। दि० प्र० । 6 कल्पितत्वात् । दि० प्र०। 7 खपुष्यवत् । ब्या० प्र०। 8 अकृतका उत्पत्तिरहिता यथावस्थिता: अकिञ्चित्करा इत्यर्थः । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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