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________________ १६८ ] अष्टसहस्री [ तृ० ५० कारिका ५३ तयोरविशेषादयुक्तवत् । यथैव हि शिशपात्ववृक्षत्वयोश्चित्रज्ञाननीलादिनिर्भासयोर्वा 'तादात्म्यमापन्नयोरयुक्तयोः कारणसन्निपातो न भिन्नः संभवत्येककारणकलापादेवात्मलाभादन्यथा तादात्म्यविरोधात् । तथैव पूर्वाकारविनाशोत्तराकारोत्पादयोरपि, नीरूपस्य 'विनाशस्यानिष्टेरुत्तरोत्पादरूपत्वाभ्युपगमात् 'तयोभिन्नकारणत्वे तद्विरोधान्ततान्तरप्रवेशानु प्रकार से आप बौद्ध स्वीकार करते हैं । तब तो वह हेतु का समागम ही आश्रय है क्योंकि वे नाश और उत्पाद कारण हैं अर्थात् नाश और उत्पाद आश्रयी हैं, कार्यरूप है । वह हेतु समागमरूप आश्रय उन आश्रयी कार्यरूप नाशोत्पाद से अभिन्न ही है, भिन्न नहीं है क्योंकि अयुक्त के समान उन दोनों आश्रयियों में अभेद है। अर्थात् नाश और उत्पाद में जो घटनाश का हेतु है वही कपाल उत्पाद का हेतु है इसीलिये एक ही हेतु का व्यापार दोनों जगह है और इस प्रकार से तो बौद्धों के यहाँ नाश भी सहेतुक हो जाता है परन्तु यह बौद्ध के लिये दूषण ही है। जिस प्रकार से अपृथक रूप एवं तादात्म्य भाव को प्राप्त हुये शिशपात्व और वृक्षत्व में अथवा चित्रज्ञान और नीलादिनिर्भास में कारण का सन्निपात भिन्न सम्भव नहीं है क्योंकि एक कारण कलाप से ही इनका आत्म लाभ है । अन्यथा यदि आप भिन्न कारण से जन्य मानें तब तो तादात्म्य का विरोध हो जायेगा । उसी प्रकार से पूर्वाकार के विनाश और उत्तराकार के उत्पाद को भी कारण सन्निपात हेतु समागम भिन्न सम्भव नहीं है । अर्थात् घट का विनाश ही कपाल का उत्पाद है । अतएव नाशोत्पाद दोनों का हेतु एक ही है। (यदि बौद्ध कहे कि विनाश तो नीरूप नि:स्वाभावरूप है अतः वह एक हेतुक कैसे होगा ? उस पर जैनाचार्य कहते हैं कि-) नीरूप-सर्वथा अभावरूप विनाश इष्ट नहीं है क्योंकि वह उत्तराकार का उत्पाद रूप ही स्वीकार किया गया है। यदि नाश और उत्पाद दोनों का भिन्न कारण मान लेंगे तब तो उत्पाद विनाश का विरोध होने से आप बौद्ध भिन्न कारणवादी नैयायिक के मत में प्रवेश कर जायेंगे। सो यह बौद्ध विसदृश कार्य के उत्पन्न करने वाले हेतु से भिन्न हेतु का अभाव होने से पूर्वाकार के विनाश को अहेतुक कहता है और नाश के हेतु से भिन्न हेतु का अभाव होने से उत्तराकार के उत्पाद को अहेतुक नहीं मानता है तो यह व्याकुलता रहित कैसे है ? भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि किसी ने मुद्गर से घट फोड़ा तो जो कपाल उत्पन्न हो गये हैं वे विसदृश कार्य हैं मुद्गर इन कपालों को उत्पन्न करने में हेतु है और घट के फूटनेरूप विनाश में 1 नाशोत्पादावाश्रित्य ।ब्या०प्र०12 निर्भासयोरर्थात्तादात्म्य । इति पा० । दि० प्र०।3 विनाशस्य नीरूपत्वादेकहेतुकत्वं कथमित्याशङ्कायामाह । दि० प्र० । 4 सौगतोपि । दि० प्र०। 5 नाशोत्पादयोः । ब्या० प्र०। 6 सौगतः । ब्या०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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