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अवक्तव्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ १८६ थातिप्रसङ्गात्' इति, तदेतद्विषयविषयिणोभिन्नकालत्वं प्रत्यक्षेपि समानं, शब्दविकल्पकालवत् प्रत्यक्षप्रतिभासकालेपि विषयस्यासंभवात्, संभवे वा क्षणिकत्वविरोधाद्वेद्यवेदकयोः समानसमयत्वप्रसङ्गाच्च । अथ भिन्नकालत्वेपि विषयात्प्रत्यक्षस्याविपरीतप्रतिपत्तिः, अन्यत्रापि सास्त्येव । न हि शब्दादर्थं परिच्छेद्य प्रवर्तमानो विपरीतं प्रतिपद्यते प्रत्यक्षादिव प्रतिपत्ता, येन दर्शने एवाविपरीतप्रतिपत्तिर्भवति न पुनः शाब्देपीति बुध्यामहे। क्वचिद्विकल्पे विपरीतप्रतिपत्तिमुपलभ्य सर्वत्र विपरीतप्रतिपत्तिकल्पनायां क्वचिद्दर्शनेपि विपरीत
अन्वय से । अत: विषयी शब्द उसका वाचक नहीं हो सकता है। अन्यथा अतिप्रसंग आ जायेगा। अर्थात् अंतीत अर्थ भी विवक्षित शब्द के वाच्य हो जायेंगे।
जैन-इस प्रकार से तो विषय पदार्थ और विषयी शब्द अथवा कोई ज्ञान इन दोनों का यह भिन्न काल तो प्रत्यक्ष में भी समान है। जिस प्रकार से शब्द के विकल्प्प काल में शब्द का विषयभूत पदार्थ नहीं है तद्वत् प्रत्यक्ष के प्रतिभास काल में भी क्षणिक रूप विषय-पदार्थ असम्भव ही है ।
___ अथवा संभव मान लेंवे तो क्षणिक मत का विरोध हो जायेगा अर्थात् वह पदार्थ कुछ क्षण ठहरने पर क्षणिक कैसे कहलायेगा? एवं ज्ञेय और ज्ञायक रूप कार्य करण में समान समय का प्रसंग आ जायेगा।
सौगत-भिन्न काल होने पर भी विषयभूत पदार्थ से प्रत्यक्ष में अविपरीत प्रतिपत्ति है। जैन-यदि ऐसा कहो तब तो अन्यत्र शब्दों में भी वह अविपरीत प्रतिपत्ति है ही है।
शब्द से अर्थ को जान करके प्रवृति करता हुआ कोई मनुष्य विपरीत को नहीं जानता है । जैसे कि कोई मनुष्य प्रत्यक्ष से पदार्थ को जानकर प्रवृत्ति करता हुआ विपरीत को नहीं जानता है किन्तु सत्य को ही जानता है। जिससे कि प्रत्यक्ष रूप निर्विकल्प दर्शन में ही सच्चा ज्ञान हो किन्तु शब्द के विषयभूत पदार्थ में सच्चा ज्ञान न होवे ऐसा हम मान सकें। अर्थात् नहीं मान सकते हैं प्रत्युत शब्द से सच्चा ज्ञान होता है ऐसा हम मानते हैं ।
किसी विकल्प ज्ञान में विपरीत ज्ञान को देखकर सभी जगह विपरीत ज्ञान को कल्पना करने पर तो किसी (सीप के टुकड़े में रजत विषयक) निर्विकल्प दर्शन में भी विपरीत ज्ञान को देखकर सर्वत्र-सत्यज्ञान में भो विपरीत ज्ञान की कल्पना हो जावे क्योंकि दोनों जगह कुछ भी अन्तर नहीं है।
1 अर्थः । दि० प्र० । 2 विषयादुत्तरकालत्वेपि । दि० प्र० 1 3 सम्यग्ज्ञान । ब्या० प्र०। 4 शब्देपि । इति पा० । दि० प्र० । शब्दविकल्पे । दि० प्र० । 5 नद्यास्तीरे मोदकराशयः सन्तीत्यादी। दि० प्र० ।-6 स्याद्वादी वदति हे सौगत कृचिद्विकल्पज्ञाने विपरीत प्रतिप्रत्तिं प्राप्य सर्वत्र विपरीत प्रतिपत्तिकल्पनायां क्रियभाणायां सत्यां निर्विकल्पकदर्शनेपि तथैवास्तु उभयत्र विशेषाभावात्। एवं सौगतप्रत्यक्षदर्शनसविकल्पक ज्ञानयोः वस्तुग्राहकत्वाभावे सति लोके किमपि वस्तु न सिद्धम् । कस्मात् दर्शनेन गृहीतस्य दृष्टस्यानिश्चयाददृष्टसमानत्वात् । पुनः कस्माददृष्टस्यसामान्यलक्षणस्य निर्णयः सांख्याभ्युपगतप्रधानादिविकल्लान्न भिद्यते यतः। यथा प्रधानादि धर्मः अप्रमाणम तथा विकल्पज्ञानम् । दि० प्र० ।
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