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________________ १७२ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४६ अवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्पोपि न कथ्यताम् । असन्तिमवस्तु' स्यादविशेष्यविशेषणम् ॥४६॥ [ सर्वथाबक्तव्यं वस्तु अवक्तव्यमितिशब्देनापि न वक्तुं युज्यते । ] न हि सर्वथानभिलाप्यत्वेऽनभिलाप्यचतुष्कोटेरभिधेयत्वं युक्तं', कथंचिदभिलाप्यत्वप्रसङ्गात् । ततो भवद्भिरवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्पोपि न कथनीयः । इति न परप्रत्यायनं नाम । अपि चैवं सति' सर्वविकल्पातीतमवस्त्वेव स्यादन्यत्र वाचोयुक्तेः । जात्यन्तर संतान और संतानी में भी एकत्व, अन्यत्व के द्वारा अवाच्यपने को सिद्ध कर देता है, क्योंकि विशेषभेद का अभाव है। अर्थात् एकत्व अन्यत्व रूप धर्म के अवाच्य होने से धर्मी भी अवाच्य हो जाता है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। उत्थानिका-इस प्रकार से जिन सौगातों का यह अभिप्राय है उनके द्वारा भी तब तो "चतुष्कोटि का विकल्प, अवक्तव्य है" इस विध भी। नहीं कथन हो सकता फिर सब, वस्तु विकल्पातीत हुई। सब धर्मों से विरहित वस्तु, सदा अवस्तुरूप हुई। चूंकि विशेष्य विशेषण भी उसमें, हो सकता कभी नहीं ॥४६॥ कारिकार्थ-"चतुष्कोटि विकल्प अवक्तव्य है" ऐसा भी नहीं कहा जा सकेगा , पुनः वे जीवादि पदार्थ असति- सभी धर्मों से रहित होते हुये अवस्तु रूप ही हो जायेंगे ।।४६।। [ सर्वथा अवक्तव्य वस्तु 'अवक्तव्य' इस शब्द से भी नहीं कही जा सकेगी। ] वस्तु को सर्वथा अवाच्य कहने पर चतुष्कोटि विकल्प अवाच्य है यह कथन भी युक्त नहीं है । अन्यथा कथंचित् वाच्यपने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिये आप सौगतों को "चतुष्कोटि का विकल्प अवक्तव्य है" ऐसा भी नहीं कहना चाहिये । इस प्रकार से परप्रत्यायन-शिष्यों को समझाना भी नहीं बन सकेगा। 1 यतः । ब्या० प्र०। 2 ईप । ब्या० प्र० । 3 विकल्पस्य । दि० प्र०। 4 अन्यथा । दि० प्र०। 5 सौगतो वदति यत एवं ततः भवद्धिः स्याद्वादिभिः अवक्तव्यचतुकोटिविकल्पोपिन कथनीयः स्याद्वादी वदति इति तव वचः परेषां स्याद्वादिनां नाम अहोसंबोधनकारि न भवति । दि० प्र०। 6 किञ्च। दि० प्र०। 7 सत् । दि० प्र० । 8 स्याद्वादी वदति सत्त्वमेवासत्त्वमेवाभिलाप्यमेवानभिलाप्यमेवेत्यादिलक्षणः सर्वथैकान्तविकल्पस्तेन रहितत्वात् । अनेकान्तात्मकं जात्यन्तरमेव सर्वविकल्पातीतमिति वचनस्य चातुर्थ्य एव वस्तु प्रतिपादितं स्यात् अन्यथा सर्वविकल्पातीतमिति वाचो युक्त्यभावे वस्तु न स्यात् कस्मात्तस्याभावस्य विशेषणविशेष्यरहितत्वाद्यथा खपुष्पस्य । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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