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________________ १५६ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४२ न हि तेषां काल एव भिद्यते न पुनर्देशस्तस्य नित्यत्वप्रसङ्गात् । सर्वस्वलक्षणानां स्वरूपमात्रदेशतया देशाभावाददोष इति चेत्कथमेवं भिन्नसंततितिलादीनां भिन्नदेशता ? । स्वरूपलक्षणदेशभेदादिति चेन्मृत्पिण्डादीनामपि तत एव सास्तु, न चान्यत्रापीत्यविशेष एव । सादृश्यविशेषाद्विशेष इत्यपि मिथ्या, सादृश्यस्यापि परमार्थतः क्वचिदभावात्सामान्यवत् । अतत्कार्यकारणव्यावृत्त्या कल्पितस्य तु सादृश्यस्य को विशेष' इति चिन्त्यम् । वैलक्षण्यानवधारणहेतुत्वमिति' चेत् कृष्णतिलादिषु भिन्नसंतानेष्वपि समानम् । परस्पराश्रयत्वानुउनमें भी अभाव के व्यवधान का प्रसंग आ जावेगा। क्योंकि उन एक संतानवर्ती मृत्पिडादिकों में काल से तो भेद हो किंतु देश से न होवे ऐसा तो है नहीं। अन्यथा देश को नित्यपने का प्रसंग आ जायेगा किन्तु बौद्ध के मत में तो किसी भी वस्तु को नित्य नहीं माना है। बौद्ध-सभी स्वलक्षणों में स्वरूप मात्र ही देश के होने से भिन्न देश का अभाव है अत: हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है । अर्थात् हम स्वरूप मात्र को ही सभी स्वलक्षणों का देश कहते हैं अन्य कोई देश है ही नहीं इसलिये देश में भेद का अनवधारण लक्षण दोष हमारे यहाँ सम्भव नहीं है। जैन-पुन: इस प्रकार से भिन्न संतति रूप तिलादिकों में भी भिन्न देशता कैसे हो सकेगी ? अर्थात् उनमें भी भिन्न देशता नहीं सिद्ध हो सकेगी। बौद्ध-तिलादिकों में जो स्वरूप लक्षण देश के भेद से भिन्नता है। जैन-यदि ऐसा कहो तब तो मत्पिड आदि में भी स्वरूप लक्षण देश भेद तो मौजूद ही है उसी से उनमें भी देश भिन्नता हो जावे और वह अन्यत्र भी-मृत्पिडादिकों में भी नहीं है, इसलिये दोनों में समानता ही है। बौद्ध-सादृश्य विशेष से उन तिलों से मत्पिडादि में अन्तर है । अर्थात् सादृश्य मात्र सामान्य सदृशता तो उन तिलों में है कि एक विशेष सदृशता जो मृत्पिडादि में है वह उनमें नहीं है। जैन-यह कथन भी मिथ्या ही है। क्योंकि आपके अभिप्राय से तो सादृश्य भी परमार्थ से किसी वस्तु में नहीं है । सामान्य के समान । और अतत्कार्य कारण की व्यावृत्ति से कल्पित सादृश्य में क्या अन्तर है यह तो आप सौगत को विचार करना चाहिये। बौद्ध-भेद का निश्चय न होना ही हेतु है । वही सादृश्य विशेषरूप है। जैन-तब तो सदृश रूप काले तिल आदिक भिन्न संतानों में भी वह हेतु समान है । और इस प्रकार से परस्पराश्रय दोष का भी प्रसंग आ जाता है । सादृश्य विशेष के होने पर मृत्पिड स्थास 1 मृत्पिण्डस्थासाद्युत्तरोत्तरकार्यकालापेक्षया। दि० प्र०। 2 मा भवतु । दि० प्र० । 3 कालादिभ्यो मृत्पिण्डादेः । व्या० प्र० 4 सादृश्यमिति सम्बन्धः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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