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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ८७ [ विवक्षाया विषयोऽसदेवेति मन्यमाने बौद्धेन जैनाचार्याः समादधते । ] न हि कस्यचिद्विवक्षाविषयस्य मनोराज्यादेरसत्त्वे सर्वस्यासत्त्वं युक्तं, कस्यचित् प्रत्यक्षविषयस्य केशोंडुकादेरसत्त्वे सर्वस्य प्रत्यक्षविषयस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षाभासविषयस्यासत्त्वं, न पुनः सत्यप्रत्यक्षविषयस्येति चेत् तॉसत्यविवक्षाविषयस्यासत्त्वमस्तु, सत्यविवक्षाविषयस्य' तु मा भूत् । न काचिद्विवक्षा सत्या विकल्परूपत्वान्मनोराज्यादिविकल्पवदिति चेन्न, अस्यानुमानस्य सत्यत्वेऽनेनैव हेतोय॑भिचारात् तदसत्यत्वे साध्याप्रसिद्धेः । यतोनुमानविकल्पादर्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानोर्थक्रियायां न विसंवाद्यते, तद्विषयः सन्नेवेति [ विवक्षा का विषय असत् ही है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं। ] बौद्ध-मनोराज्यादि असत्रूप हैं फिर भी किसी की विवक्षा के विषय तो होते हैं। जैन- इस उदाहरण से सभी विवक्षा के विषय को असत् कहना युक्त नहीं है। अन्यथा किसी के प्रत्यक्ष के विषयभूत केशोंडुक ज्ञान आदि के असत्रूप होने पर सभी के प्रत्यक्ष के विषय असत् हो जायेंगे अर्थात् किसी को प्रत्यक्षज्ञान से केशों में मच्छर का ज्ञान हो गया है वह मच्छर का ज्ञान असत् में हआ है अतः सभी के प्रत्यक्षज्ञान का विषय असतरूप है ऐसा भी कहना पड़ेगा। बौद्ध-प्रत्यक्षाभास का विषय असत्रूप है किन्तु सत्यप्रत्यक्ष का विषय असत् नहीं है। जैन-लब तो असत्य विवक्षा के विषयभूत मनोराज्यादि असत् हो जावें, कोई बाधा नहीं है किन्तु सत्य विवक्षा के विषय तो असत्रूप नहीं हो सकेंगे। बौद्ध-"कोई भी विवक्षा सत्य नहीं है क्योंकि विकल्परूप है, मनोराज्यादि विकल्प के समान ।" इस अनुमान से सभी विवक्षायें असत्य हैं। जैन-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि यदि आप इसी अनुमान को सत्य मानते हैं तब तो इसी अनुमान से ही हेतु व्यभिचरित हो जाता है। यदि आप इस अनुमान को असत्य मानते हैं तब तो साध्य अप्रसिद्ध हो जाता है । यह आपका अनुमान सत्य है या असत्य ? सत्य कहो तो इसी अनुमान से आपका हेतु व्यभिचारी हो गया है और असत्य कहो तो इस असत्य अनुमान से आपका साध्य सिद्ध कैसे होगा? बौद्ध-जिस अनुमान विकल्प से अर्थ को जान करके प्रवर्तमान हुआ मनुष्य अर्थक्रिया में विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है, उस अनुमान विकल्प का विषय सत्रूप ही है-विद्यमान ही है। 1 विकल्पस्य । दि० प्र.। 2 अन्यथा । ब्या० प्र०। 3 असत्यप्रत्यक्षगोचरस्य । दि० प्र०। 4 असत्त्वं मा भवत् । दि० प्र० । 5 अत्राह स्याद्वादी हे सौगत ! अस्य विवक्षाऽसत्यस्थापकस्य । त्वदीयानमानस्य सत्यत्वमसत्यत्वं वेति प्रश्नः सत्यत्वेऽनेनैवानुमाने न विकल्परूपत्वादिति हेतोयभिचारो घटते । कथञ्चित्कल्परूपः सत्यश्च । तदा विवक्षा सत्या=तस्यानुमानस्यासत्त्वे साध्या प्रसिद्ध विवक्षा कदासत्या न इति साध्येन सिद्धयति किमायातं यथापि विवक्षा सत्या भवति । दि० प्र० । 6विवक्षाया असत्यत्वम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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