________________
___८४ ]
अष्टसहस्री
[ द्वि०प० कारिका ३४
संप्रतीयते, न स शक्यस्ततोन्येन' । तेन भिन्नाऽभिन्ना' च व्यवस्थितिः पदार्थानां, तथा प्रतीतेधिकाभावात् । ततः स्थितमेतत्, सत्सामान्यविवक्षायां सर्वेषामक्यं, द्रव्यादिभेदविवक्षायां पृथक्त्वमेव, इतरस्याविवक्षायां गुणभावात् ।
इसलिये सभी पदार्थ भिन्न और अभिन्नरूप से व्यवस्थित हैं क्योंकि उस प्रकार की प्रतीति __ में बाधक प्रमाण का अभाव है अतः यह बात पूर्णतया निश्चित हो गई कि सत्सामान्य की विवक्षा
करने पर सभी पदार्थों में ऐक्य है और द्रव्यादि के भेद की विवक्षा करने पर सभी में पृथक्त्व ही है क्योंकि इतर धर्मों की विवक्षा न होने पर गौण भाव से इतर धर्म रहते हैं अर्थात् जीवादि वस्तु में एक्त्व की विवक्षा करने पर पृथक्त्व गौण-अप्रधान हो जाता है और पृथक्त्व-भेद की विवक्षा करने पर एकत्व अप्रधान हो जाता है यह भाव है।
1 पथक्त्वेनैव सामान्यलक्षणेनैव वा प्रत्येतुं न शक्यः । ब्या० प्र० । 2 तेनाभिन्ना भिन्ना च इति पा० । दि० प्र०, व्या० प्र० 13 ऐक्यपृथक्त्वयोमध्य एकस्य विवक्षायां प्राधान्यम् । अन्यस्याविवक्षायां गूणभावो घटते । दि० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org