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________________ ८० ] अष्टसहस्री [ द्वि० १० कारिका ३४ [ सम्पूर्णपदार्थेषु सदृशपरिणामे सत्यपि कथमेकत्वम् ? ] कश्चिदाह', सर्वार्थानां समानपरिणामेपि कथमक्यं भेदानां' स्वभावसार्यानुपपत्तेः । न हि भावाः परस्परेणात्मानं मिश्रयन्ति, भेदप्रतीतिविरोधात् । तेषामतत्कार्यकारणव्यावृत्त्या समानव्यवहारभाक्त्वेपि परमार्थतोऽसंकीर्णस्वभावत्वात् । तदुक्तं "सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थितेः। स्वभावपरभावाभ्यां यस्माद्वयावृत्तिभागिनः ॥१॥ तस्माद्यतो यथार्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः। जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषावगाहिनः ॥२॥ [ सभी पदार्थों मे सदृशपरिणाम होने पर भी एकत्व कैसे है ? ] बौद्ध-"सभी पदार्थों में सदृशपरिणाम होने पर भी उनमें एकत्व कैसे हो सकता है ? क्योंकि भेदों में स्वभाव संकर तो बन नहीं सकता है।" सभी भाव-पदार्थ परस्पर में अपने स्वरूप को मिश्रित नहीं करते हैं अभ्यथा भेद की प्रतीति का विरोध हो जायेगा। किन्तु भेद की प्रतीति तो देखी जाती है। उन पदार्थों में अतत्कार्य-कारण की व्यावृत्ति से समान व्यवहार होने पर भी परमार्थ से वे असंकीर्ण स्वभाव वाले ही हैं अर्थात् सभी पदार्थ असत्कार्य कारण की व्यावृत्तिलक्षण वाले सामान्य से यद्यपि सदृश हैं फिर भी वास्तव में भिन्न-भिन्न-अमिश्रित स्वभाववाले ही हैं। कार्य से व्यावृत्त कारण है और कारण से व्यावृत्त कार्य है । अतत्कार्य से व्यावृत्त तत्कार्य है एवं अतत्कारण से व्यावृत्त तत्कारण है। बौद्धों के यहाँ अतत्कारणकार्य से व्यावृत्तिलक्षणवाला सामान्य है । कहा भी है श्लोकार्थ-सभी पदार्थ स्वभाव से अपने-अपने स्वभाव में व्यवस्थित हैं क्योंकि स्वभावपरभाव के निमित्त से व्यावृत्तिभाक्-भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले हैं ।।१।। श्लोकार्थ-इसलिये जिस अर्थ से पदार्थों की व्यावृत्ति है उस निमित्त से ही व्यावृत्ति विशेष का अवगाहन करने वाले जाति भेद कल्पित किये गये हैं अर्थात् अगोरूप से गौ की व्यावृत्ति है और अशबल रूप से शबल की व्यावृत्ति है इसलिये व्यावृत्ति विशेष से युक्त गौ, गौ, अश्व, अश्व इत्यादि जाति भेद कल्पित किये गये हैं किन्तु वे जाति भेद वास्तविक नहीं हैं ॥२॥ 1 सौगतः । ब्या० प्र०। 2 सर्वार्थ इति पा० । दि० प्र० । अत्राह सौगतः सर्वेषामर्थानामसमानपरिणामे सत्यक्यं कथं न कथमपि, कस्माद्धेतोः स्वभावसांकर्यासंभवात् =पदार्था अन्योन्यं स्वभावं न हि मिश्रीकुर्वन्ति, मिश्रयन्ति चेत्तदा भेदप्रतीतिविरुद्धयते तेषां भावानां कार्यञ्च कारणञ्च कार्यकारणे ते च ते कार्यकारणे तत्कार्यकारणे न तत्कार्यकारणे असत्कार्यकारणे तयोव्वत्तिरभावस्तया कृत्वा यद्यप्यस्ति समानव्यवहारता तथापि वस्तुनोऽमिलितस्वभावत्वं वर्तते । दि० प्र०। 3 जीवादिनाम् । विशेषाणाम् । दि. प्र.। 4 स्वरूपम् । दि० प्र० । 5 सजातीय । विजातीय । सजातीयविजातीयाभ्याम् । दि० प्र०। 6 तयोः स्वभावपरभावयोविशेषारूढाः । दि० प्र० । 7 स्वलक्षण । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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