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________________ बौद्धाभिमत पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ४७ कुतस्तस्य' समनन्तरत्वम् ? तस्याव्यभिचारिकारणत्वादिति चेन्न, सर्वार्थानां तत्समनन्तरत्वप्रसङ्गात् । एकसंतानत्वे सति कारणत्वादिति चेत्सोयमन्योन्यसंश्रयः । सिद्धे समनन्तरप्रत्ययत्वे तस्यैकसंतानत्वेन' कारणत्वसिद्धिस्तत्सिद्धौ च समनन्तरप्रत्ययत्वसिद्धिरिति । [ बौद्धस्य जिज्ञासायां स्वाभिमतसन्तानस्य लक्षणं ब्रुवन्ति जैनाचार्याः । ] ___ स्याद्वादिनां कस्तयेकः संतान इति चेत् पूर्वापरकालभाविनोरपि 'हेतुफलव्यपदेशभाजोरतिशयात्मनोरन्वयः' संतानः । क्वचित्क्षणान्तरे10 नीललोहितादिनिर्भासचित्रक बौद्ध-ऐसा नहीं है, क्योंकि एक संतानत्व के होने पर ही कारणपना संभव है अर्थात् एक संतान के होने पर ही वह समनंतरप्रत्यय उत्तरचित्त के प्रति कारण है। जैन-तब तो अन्योन्याश्रय दोष आ जाता है। समनंतर प्रत्यय के सिद्ध होने पर उसको एक संतानरूप से कारणपना सिद्ध होगा भौर एक संतान को कारणपना सिद्ध होने जाने पर समनतर प्रत्यय की सिद्धि हो सकेगी। [ बौद्ध की जिज्ञासा के होने पर स्वाभिमत संतान के लक्षण को जैनाचार्य स्पष्ट करते हैं ] बौद्ध-तो पुनः आप स्याद्वादियों के यहाँ एक संतान क्या है ? जैन-हमारे यहाँ तो "हेतु और फल कारण, कार्य व्यपदेश को प्राप्त अतिशयात्मक पूर्व अर उत्तर कालरूप दोनों कालों में रहने वाले अन्वय को "संतान" कहते हैं क्योंकि किसी क्षणान्तरचित्रपटादि के चित्रक संवेदनरूप भिन्न क्षण में नोल, लोहित आदि प्रतिभासरूप चित्र के एक ज्ञान के समान अन्वय द्वारा कथंचित् एकत्वरूप होने योग्य है।" अर्थात् संतान का लक्षण करके संतान के एकत्व को कहते हैं कि “संतान कथंचित् एक ही है क्योंकि चित्रपट आदि के एक चित्रज्ञान में नीले, लाल आदि प्रतिभासरूप एक चित्रज्ञान ही झलकता है।" यह चित्रज्ञान का उदाहरण साध्य विकल भी नहीं है क्योंकि उस चित्रज्ञान में एकत्व प्रसिद्ध है । "उस चित्र के नील पीतादिरूप अवयवों में भेद की कल्पना के करने पर तो चित्रज्ञान हो नहीं बन सकेगा, जैसे पृथक-पृथक् वर्णों को विषय करने वाले अनेक संतानों में एक क्षण नहीं बनता 1 समनन्तरप्रत्ययस्य। दि० प्र०T 2 समनन्तरप्रत्ययस्याव्यभिचारे कारणत्वात समनन्तरत्वं घटते इति चेत् स्याद्वाद्याह एवं न=इतरचित्तानां बुद्धचित्तसमनन्तरत्वं प्रसजति यतः । दि० प्र० । 3 सौगतः। दि० प्र० । 4 समनन्तरप्रत्ययस्य । दि० प्र०। 5 तस्य एकसन्तानत्वे कारणत्वस्य सिद्धौ सत्याम् । दि० प्र० । 6 क्षणायाः । ब्या० प्र०। 7 कार्यकारणव्यपदेश भाजोः । ब्या० प्र०। 8 क्षण योविशेषणमत्र द्रष्टव्यं यथाक्रमं विशेषणत्रयेणककालयोभिन्नसन्तानयोरेका कार्यसहकारीत चित्तक्षणयोः कारणयोश्चनिरासः । ब्या० प्र० । 9 द्रव्यरूपतया एकत्वम् । ब्या० प्र० । 10 कारणकार्यनामयुक्तयोः भिन्नस्वभावयोः। चित्रज्ञानलक्षणे । दि० प्र० । 11 चित्रपटादी। आकार वसः। भा। ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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