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________________ २८ ] अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका २७ न चैवमप्रामाणि कायामविद्यायां कल्प्यमानायां कश्चिदोषः, तस्याः संसारिणः' स्वानुभवाश्रयत्वाद्वैतवादिन एव दृष्टादृष्टार्थप्रपञ्चस्य प्रमाणबाधितस्य कल्पनायामनेकविधायां बहुविधदोषानुषङ्गात् । तदप्युक्तं "त्वत्पक्षे बहु कल्प्यं स्यात् सर्व मानविरोधि च । कल्प्याऽविद्यैव मत्पक्षे सा चानुभवसंश्रया" ॥१॥ इति कश्चित् [ अधुना जैनाचार्या ब्रह्मवादिपक्षं निराकुर्वन्ति । ] सोपि न प्रेक्षावान्, सर्वप्रमाणातीतस्वभावायाः स्वयमविद्यायाः स्वीकरणात् । न हि प्रेक्षावान् सकलप्रमाणातिक्रान्तरूपामविद्यां विद्यां वा स्वीकुरुते । न च प्रमाणानामविद्या इस प्रकार से अप्रमाणभूत अविद्या की कल्पना करने पर कोई दोष नहीं है क्योंकि वह अविद्या सभी संसारी जीवों के स्वानुभवाश्रित है अर्थात् सभी जीवों को उसका अनुभव आ रहा है किंतु द्वैतवादियों के यहाँ ही प्रमाण से बाधित दृष्ट-देश कालादि और अदृष्ट-पुण्य पापादिकों की अनेक प्रकार की कल्पना के करने पर अनेक प्रकार के दोषों का प्रसंग आता है। कहा भी है लोकार्थ-त्वत्पक्ष-द्वैतवाद में अथवा स्याद्वादियों के पक्ष में जो बहुत कल्पित विषय स्वर्ग आदि हैं वे प्रमाण से विरुद्ध हैं । मुझ अद्वैतवादी के पक्ष में अविद्या ही कल्पित की गई है जो कि संसारी जीवों के अनुभव में आ रही है अर्थात् उस अविद्या का सभी संसारी जीवों को स्वयं ही अनुभव आ रहा है ।।१।। ऐसा हम अद्वैतवादियों का अभिमत है । [ अब जैनाचार्य ब्रह्मवादियों के पक्ष का निराकरण करते हैं ] जैन-ऐसा कहने वाले आप भी बुद्धिमान् नहीं हैं, क्योंकि आपने स्वयं ही उस अविद्या को संपूर्ण प्रमाणों से रहित स्वभाववाली स्वीकार की है। कोई भी प्रेक्षावान् विद्वान् पुरुष संपूर्ण प्रमाणों से अतिक्रांत रूप अविद्या अथवा विद्या को स्वीकार नहीं कर सकते हैं। प्रमाणों का अविद्या को विषय करना अयुक्त भी नहीं है क्योंकि विद्या के समान अविद्या भी कथंचित् वस्तु रूप ही है । अद्वैतवादी-कथंचित् भेद को स्वग्रहण करने से वह अविद्या यदि वस्तु रूप है तब तो उसमें विद्यापन का ही प्रसंग आ जाता है। . जैन-ऐसा मानने में तो हमारा कुछ भी अनिष्ट नहीं है। यथा-स्वग्रहण प्रकार से जहाँ पर अविसंवाद है-विसंवाद नहीं है वहीं पर प्रमाणता है। ऐसा श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है 1 संसारी अविद्यां स्वयमेवानुभवति । दि० प्र०। 2 प्रतिभासन्तः प्रविष्टत्वसाधकप्रमाणेन । स्वर्गादि । दि० प्र० । 3 प्रमाणप्रमेयकल्पनाप्रमाणस्येन्द्रियादिपरिकल्पनाप्रमेयस्यापि स्वरूपकल्पना। ब्या० प्र०। 4 तत्पक्षे इति पा० । ब्या० प्र०। 5ईप । व्या०प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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