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( ६३ ) शेषभंगाश्च नेतव्या यथोक्त-नय योगतः । न च कश्चिद्विरोधोस्ति मुनीन्द्र ! तव शासने ॥२०॥
अस्ति नास्ति उभयात्मक क्रम से, तीन भंग ये कहे गये। यथायोग्य नय विधि से आगे, भंग चार हैं शेष कहे ॥ अवाच्य, अस्तिअवाच्य, नास्तिअवाच्य, अस्तिनास्ति अवाच्य ।
हे मुनीन्द्र ! तव शासन में कुछ भी विरोध नहिं दिखे कदापि ॥२०॥ एव विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेति चेन्न यथा काय बहिरन्तरु पादिभिः ॥२१॥
ऐसे विधि निषेध द्वारा जो, एकरूप से नहीं कही। वह अनवस्थित वस्तु जगत् में, अर्थक्रियाकारी नित ही ॥ यदि ऐसा नहि मानों तो, बाह्याभ्यंतर द्वय कारण से ।
कार्य कहा है, वह नहिं होगा, अर्थक्रिया नहिं होने से ॥२१॥ धर्म धर्मेन्य एवार्थो मिणोऽनन्तधर्मणः। अंगित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदंगता ॥२२॥
अनंत धर्मा वस्तू के प्रत्येक धर्म के पृथक्-पृथक् । अर्थ कहें हैं अतः वस्तु है, अनंत धर्मात्मक शाश्वत ॥ अनंत धर्मों में जब इक ही, धर्म प्रधान कहा जाता।
तब वे शेषधर्म हो जाते, गौण यही जिन ने भाषा ॥२२॥ एकानेक-विकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् । प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयनय-विशारदः ॥२३॥
नय में निपुण जनों को नित ही, अनेक एक विकल्पों में। नित्यं क्षणिक आदिक में भी ये, सप्तभंग कर लेने हैं । सुनय विवक्षा के द्वारा प्रत्येक धर्म में सुघटित है। सप्तभंग प्रक्रिया विधि यह, जिनमत में ही वणित हैं ॥२३॥
इति आप्तमीमांसायां प्रथमः परिच्छेदः ।
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