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कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥
प्रागभाव को यदि नहिं मानों, सभी कार्य हो अनादि सिद्ध । मिट्टी में घट सदा बना है, फिर क्या करता चक्र निमित्त ॥ यदि प्रध्वंस धर्म नहीं मानों, किसी वस्तु का अंत न हो । पिता, पितामह आदि कभी भी, अंत-मरण को प्राप्त न हों ।। १० ।।
सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोह व्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत
यदि अन्योन्याभाव नहीं हो, एक वस्तु सब रूप बने । एक समय में मनुज बने सुर पशु नारक पर्याय घने ॥
यदि अत्यंताभाव न होवें, एक द्रव्य का अन्यों में । हो जावे संमिश्रण फिर यह जीव अजीव न भेद बने ॥। ११ ॥
अभावैकांत पक्षेपि भावापन्हव- वादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न, केन साधनदूषणम् ॥ १२ ॥
यदि सब वस्तु अभावरूप हैं, शून्यवाद जन के मत में । तब तो भाव- पदारथ किंचित्, नहिं प्रतिभासित हों जग में ।।
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सर्वथा ॥ १.१ ॥
ज्ञान और आगम भी किंचित्, नहि प्रमाण होंगे तबतो । कैसे अपने मत का साधन, परमत दूषण किससे हो ||१२||
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद - न्याय विद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ १३॥
अस्ति नास्ति से उभयरूप ये, द्रव्य कदापि नहीं होंगे । क्योंकि विरोध परस्पर इनका स्याद्वाद विद्वेषी के ॥ यदि एकांत अवाच्य तत्त्व है, कहो कथन कैसे होगा । "तत्त्व अवाच्य” यही कहना तो, वाच्य हुआ स्ववचन बाधा ॥ १३ ॥
कथंचित्ते सदेवेष्टं कथंचिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्यं च नय - योगन्न
हे भगवन् ! तव मत में वस्तु तत्त्व कथंचित " सत्" ही है । वही कथंचित् "असत्" रूप ही "उभय" कथंचित् वो ही है । वह "अवाच्य" भी है नयशैली से ही सप्तभंगयुत है । वस्तु सर्वथा अस्तिरूप या नास्ति आदि से अघटित है || १४ |
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सर्वथा ॥ १४ ॥
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