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________________ ४१८ ] अष्टसहस्री [ कारिका २३ त्वाच्छब्दगोचरत्वाद्वस्तुत्वाद्वा' स्वसाध्येतरापेक्षया हेत्वहेत्वात्मकसाधनधर्मवदित्यपि नययोजनमविरुद्धमवबोद्धव्यम् । विशेषणत्वादेः साधनधर्मस्यापि स्वविशेष्यापेक्षया विशेषणस्य स्वप्रतिषेध्येनाविनाभावित्वसिद्धेन तेन विशेषणत्वादिहेतोर्व्यभिचारः । नापि' विशेष्यत्वस्य, स्वविशेषणापेक्षया विशेष्यस्यापि स्वप्रतिषेध्येनाविनाभावित्वात् । शब्दगोचरत्वस्य च शब्दान्तरागोचरस्य स्वप्रतिषेध्येनाविनाभावित्वात, वस्तुत्वधर्मस्य च वस्त्वंशत्वेन वस्तुत्वरूपस्य तत एव व्यभिचारित्वाशङ्कापि न कर्तव्या, अनेकान्तवादिनां तथाप्रतीतेविरोधाभावात । एवमेकत्वानेकत्वाभ्यामनवस्थितं' सप्तभङ्गयामारूढं जीवादिवस्तु, कार्यकारित्वान्यथानुपपत्तेः । सर्वथैकान्ते क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियाविरोधादित्याद्यपि योजनीयम् । के साथ अविनाभावी हैं, क्योंकि वे विशेषण हैं, विशेष्य हैं, शब्दगोचर हैं या वस्तुभूत हैं । स्वसाध्य और असाध्य की अपेक्षा से हेतु और अहेतुरूप साधन धर्म के समान । इस प्रकार से नय, हेतु और दृष्टांत की योजना को अविरोधरूप से समझनी चाहिये । एवं विशेषणत्वादि साधन धर्म भी अपने विशेष्य की अपेक्षा से विशेषण हैं वे भी अपने प्रतिषेध्यअविशेषणत्वादि के साथ अविनाभावी सिद्ध हैं। इसलिये उससे विशेषणत्वादि हेतु में व्यभिचार नहीं आता है । एवं विशेष्यत्व हेतु में भी व्यभिचार संभव नहीं है क्योंकि विशेष्य भी अपने विशेषण की अपेक्षा से ही विशेष्य कहलाता है वह विशेष्य भी अपने प्रतिषेध्य-अविशेष्य के साथ अविनाभावी ___ शब्दगोचरत्व हेतु भी शब्दांतर-अगोचरत्व की अपेक्षा से 'शब्दगोचरत्व' है और वह अपने प्रतिषेध्य शब्द के अगोचरत्व के साथ अविनाभावी हैं। उसी प्रकार वस्तुत्व धर्म हेतु भी वस्त्वंश से वस्तुत्व और अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी है। इन सभी हेतओं का अपने-अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावीत्व सिद्ध होने से ही इनमें व्यभिचार दोष की आशंका भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि अनेकांतवादियों को उसी प्रकार से प्रतीति में विरोध का अभाव है। इस प्रकार से एकत्व अनेकत्व से अनवस्थित जीवादिवस्तु सप्तभंगी में आरूढ हैं, क्योंकि कार्यकारित्व की अन्यथानुपपत्ति है। अर्थात् सप्तभंगी में आरूढ हुये बिना कोई भी वस्तु अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती है। सर्वथा सत् अथवा सर्वथा असत् एकांत में क्रम से अथवा युगपत् से अर्थक्रिया का विरोध है । इत्यादि भी लगा लेना चाहिये। 1 विशेषणत्वाच्छन्दगोचरत्वात् इति पाठान्तरम् । (दि० प्र०) 2 एकत्व । (ब्या० प्र०) 3 अविशेषणत्वेन धर्मेण । (दि.प्र.) 4 विशेष्यत्वादिति हेतोर्न व्यभिचारः । (दि० प्र०) 5 साधनधर्म इति प्रकृतशब्दादन्यः शब्दः शब्दान्तरम् । (ब्या० प्र०) 6 विवादापन्नमेकाभिधेयत्वादिस्वरूपं जीवादिवस्तुपक्ष: विशेष्यं भवतीति साध्यो धर्मः । शब्दगोचरत्वात् । यच्छब्दगोचरं तद्विशेष्यम् । अत्राह परः । अशब्दगोचरत्वेन कृत्वा शब्दगोचरत्वादिति हेतोय॑भिचारोस्तीति चेन्न । कस्मात् शब्दगोचरत्वस्य स्वप्रतिषेद्धय नाशब्दगोचरत्वेनाविनाभावित्वात् । अथ यथोत्पत्यादि: स्वसाध्येतरापेक्षया हेतुरहेतुश्च शब्दगोचरञ्चेदं तस्मात् साध्यसाधनधर्मविशेषणापेक्षया विशेष्यम् =एवं सर्वत्र ज्ञेयम् । (दि० प्र०) 7 एवं विधिनिषेधाभ्यामित्यस्योपसंहारयोजनम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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