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________________ ४१०] [ कारिका २२ परस्परापेक्षत्वान्न परस्पराश्रयणं, सकलधर्मधर्मविकल्पशब्दानां स्वलक्षणाविषयत्वात् ' परिकल्पिततदन्यव्यावृत्तिविषयत्वसिद्धेरिति चेन्न तथेन्द्रियबुद्धयोपि' स्वलक्षणविषया मा भूवन् । केवलं ' व्यावृत्ति पश्येयु:, अदृष्टे विकल्पायोगादतिप्रसङ्गाच्च । यथैव हि नीले पीतादीनामदृष्टत्वान्न तद्विकल्पोत्पत्तिर्नीलस्य ", दृष्टत्वान्नीलविकल्पस्यैवोत्पत्तिस्तथैवासत्त्वादिव्यावृत्तिमपश्यतस्तद्विकल्पोत्पत्तिर्मा भूत् स्वलक्षणदर्शनात्स्वलक्षणविकल्पोत्पत्तिरेवास्तु" न चैवं'2, तदन्यव्यावृत्तावेव विकल्पोत्पत्तेः 13 । यदि पुनरसत्त्वादिव्यावृत्ती नामदर्शनेपि 14 तदनादि - वासनावशादेव तद्विकल्पोत्पत्तिरुररीक्रियते तदा नीलादिरूपादर्शनेपि तद्वासनासामर्थ्यादेव " 15 16 अष्टसहस्री दोष नहीं आता है । सकल धर्म (सत्त्व असत्त्वादि) और धर्मी के विकल्प तथा शब्द स्वलक्षण के विषय नहीं हैं, क्योंकि परिकल्पित उस अन्य व्यावृत्ति के विषयरूप ही, वे सिद्ध हैं । जैन - ऐसा नहीं कह सकते। उस प्रकार से तो इन्द्रियज्ञान भी स्वलक्षण को विषय करने वाले मत होवें । केवल मात्र व्यावृत्ति को ही प्रत्यक्ष करें क्योंकि अदृष्ट में विकल्प का अभाव होने में अतिप्रसंग दोष आता है । अर्थात् निर्विकल्प के द्वारा अपरिगृहीत व्यावृत्तिरूप में विकल्प भी मत होव क्योंकि विकल्प उसी से उत्पन्न हुआ है । एवं नील में पीत ज्ञान का हो जाना, यह अतिप्रसंग दोष आ जाता है। जिस प्रकार से नील में पीतादि का दर्शन न होने से उस नील उन पीतादि के विकल्प की उत्पत्ति नहीं हो सकती है उसमें दृष्टरूप होने से नील विकल्प की ही उत्पत्ति होती है । उसी प्रकार से असत्त्वादि व्यावृत्ति को प्रत्यक्ष से न देखते हुये उन असत्त्वादि के विकल्पों की उत्पत्ति भी मत होवे । अथवा स्वलक्षण के दर्शन से स्वलक्षण के विकल्प की ही उत्पत्ति हो जावे, किन्तु ऐसा तो है नहीं उस विवक्षित अन्य से व्यावृत्ति के होने पर ही विकल्प की उत्पत्ति मानी गई है । यदि पुनः असत्त्वादि की व्यावृत्तियों का प्रत्यक्ष से ज्ञान न होने पर भी उस अनादिकालीन वासना के निमित्त से ही उस विकल्प की उत्पत्ति आप बौद्ध स्वीकार करते हैं तब तो नीलादिरूप का निर्विकल्प प्रत्यक्ष से ज्ञान न होने पर भी उसकी वासना के सामर्थ्य से ही नीलादि 1 जीवादि: । (ब्या० प्र०) 2 विकल्पशब्दानां स्वलक्षणानि विषया न भवन्ति स्वलक्षणस्य प्रत्यक्षविषयत्वादन्यव्यावृत्तिरेव शब्दविकल्पानां विषय इत्यर्थ: । ( दि० प्र०) 3 एव । स्वलक्षण । विवक्षित । का। ( दि० प्र० ) 4 तहि । ( दि० प्र० ) 5 निर्विकल्पक दर्शनानि स्वलक्षणस्वरूपवस्तुगोचराणि मा भवन्तु । प्रत्यक्षाण्यपि । ( दि० प्र० ) 6 ततः । ( ब्या० प्र० ) 7 स्वलक्षणैः । व्यावृत्तिरूप । ( दि० प्र० ) 8 स्वलक्षणेऽदृष्टे सति विकल्पज्ञानं न घटते । घटते चेदतिप्रसंगो भवति । ( दि० प्र० ) 9 तेषां पीतादीनां विकल्पः । ( दि० प्र० ) 10 तहि किं भवति । ( व्या० प्र० ) 11 असत्वादिव्यावृत्तेः । (दि० प्र० ) 12 तर्हि एवमस्त्वित्याशंकायामाह । ( व्या० प्र० ) 13 स्वलक्षणदर्शनात्स्वलक्षणविकल्पोत्पत्ति | ( दि० प्र०) 14 विवक्षितस्य । ( दि० प्र० ) 15 असत्त्वादिव्यावृत्तीनाम् । ( दि० प्र० ) 16 तस्य नीलादिरूपस्य । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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