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________________ ४०८ ] अष्टसहस्री [ कारिका २२ लक्षणं सदुत्पत्तिकृतकत्वादिस्वभावभेदवत्परिकल्प्यते'। पराभ्युपगमात्सिद्धमस्तीति' चेन्न, 'तस्याप्रमाणसिद्धत्वात् । कल्पनारोपितं तदस्तीति चेत्कुतस्तत्कल्पनाप्रसूतिः ? अनाद्यविद्योदयादिति चेत्तत' एव सत्त्वादिधर्मकल्पनास्तु । किमसत्त्वादिव्यावृत्त्या ? [ व्यावृत्तिकल्पनया सदकृतकादयः सन्तीति बौद्धमान्यतायां विचारः ] सदेव किंचिद्गुणीभूतविधिस्वभावं निषेधप्राधान्यादसदुच्यते, सदन्तरविविक्तस्य सत 'एवासत्त्वव्यपदेशात् । तथोत्पत्तिमदन्तरविविक्तमुत्पत्तिमदेव किंचिदनुत्पत्तिमत्, कृतकान्तर जैन-ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि वह पर की स्वीकृति प्रमाण से सिद्ध नहीं है। बौद्ध-वह स्वीकृति कल्पना से आरोपित है। जैन-तो उस कल्पना की प्रसूति-उत्पत्ति कैसे हुई ? बौद्ध-अनादिकालीन अविद्या के उदय से हुई है। जैन-उसी अनादिअविद्या के उदय से ही सत्त्वादि धर्मों की कल्पना भी हो जावे । पुनः असत्त्वादि की व्यावृत्ति से क्या प्रयोजन है ? [ व्यावृत्ति की कल्पना से असत्, अकृतक आदि होते हैं इस बौद्ध की मान्यता पर विचार ] बौद्ध-'सत्' ही किंचित् गौणभूत विधि स्वभावरूप है और निषेध की प्रधानता से "असत्" कहा जाता है । एक वस्तु में जो सत् है उससे भिन्न अन्य वस्त्वंतर में जो सत् है वह सदंतर कहलाता है उससे विविक्त-रहित (भिन्नसत से रहित) सत् ही व्यपदेश को प्राप्त होता है। उसी प्रकार उत्पत्तिमदन्तर (भिन्न उत्पत्तिमान् से रहित) से रहित उत्पत्तिमत् ही किंचित् अनुत्पत्तिमत है एवं कृतकान्तर से रहित कृतक ही अकृतक है तथा वस्त्वंतर से रहित वस्तु ही अवस्तु है। इस प्रकार से ये सब वचन व्यवहार के मार्ग को प्राप्त होते हैं। जैन-ऐसा नहीं कह सकते, परमार्थ से सत्त्वादि वस्तु में स्वभावभेद प्रसिद्ध है क्योंकि स्वभावभेद से रहित वस्तु के स्वरूप को स्वीकार करने में विरोध दिखता है। 1 अनित्यः शब्दः सत्त्वादुत्पत्तिमत्त्वात् । कृतकत्वात् । (ब्या० प्र०) 2 असत्त्वानुत्पत्तिसत्त्वकृतकत्वानाम् । (ब्या० प्र०) स्याद्वाद्यंगीकारात् । (दि० प्र०) 3 पररूपम् । (दि० प्र०) 4 तस्य पराभ्युपगमस्य पररूपस्य प्रमाणसिद्धत्वं नास्ति । (दि० प्र०)5 असदादि । (दि० प्र०) 6 असदादिरूपकल्पना । (ब्या० प्र०) 7 अनाद्यविद्यादयः । (दि० प्र०) 8 सौगतो वदति, सत एव घटादेरन्यसद्रहितस्य घटादिपृथक्त्वस्यासत्त्वसंज्ञा घटते तथाऽन्योत्पत्तिमद्रहितमुत्पत्तियुक्तमेव वस्त्वनुत्पत्तिमद्वयवहारपथं व्यवहारिभिः प्राप्यते । तथाऽन्यकृतकरहितं कृतकमेव वस्त्वकृतकं व्यवह्रियते । तथान्यवस्तुरहितं वस्तु एवावस्तु व्यवह्रियते । (दि० प्र०) 9 सदन्तरविविक्ततया विद्यमानस्य । (दि० प्र०) 10 पटसत्त्वान्तरशून्यत्वं पटत्वस्य । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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