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________________ अष्टसहस्री । कारिका २१ यमविनाशे प्रागसत' उत्पत्तिरित्ययमपि पक्षो न क्षेमङ्करः, स्याद्वादाश्रयणप्रसङ्गात्, असत्कार्यवादविरोधात् । ततः सूक्तं 'यदेकान्तेन सदसद्वा' तन्नोत्पत्तुमर्हति, व्योमवन्ध्यासुतवत्' इति । न ह्येकान्तेन सद्व्योमोत्पद्यते, नाप्येकान्तेनासन्' वन्ध्यासुत इति न साध्यसाधनविकलमुदाहरणम् । 'कथमिदानीमनुत्पन्नस्य गगनादेः स्थितिरिति चेन्न, अनभ्युपगमात् सर्वथा गगनाद्यनुत्पादस्य । केवलमिह व्योम्नो द्रव्यनयापेक्षया परप्रसिद्ध्या चोदाहरणं प्रतिपादितम् । ततो न पूर्वापरविरोधः, पूर्व सर्वथानुत्पत्तिमतः स्थितिप्रतिषेधसाधनात्, द्रव्यतोनुत्पद्यमानस्यैव स्थितिघटनात् । क्योंकि ऐसे तो आपको स्याद्वाद के आश्रय का ही प्रसंग आ जावेगा। अर्थात् स्याद्वाद सिद्धांत में ही "असत्कार्यवाद” का विरोध है, कथंचित् जो पहले सत्रूप है, उसी की ही उत्पत्ति सिद्ध है। इसलिये यह बिल्कुल ठीक कहा है कि जो एकांत से सत् अथवा असत् है वह उत्पत्ति के योग्य नहीं हो सकता है जैसे आकाश और बंध्यापुत्र उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। एकांत से सत्रूप आकाश कभी उत्पन्न नहीं होता है और एकांत से असत् बन्ध्यासुत भी उत्पन्न नहीं होता है। ये आकाशवत् और बन्ध्यासुतवत् उदाहरण साध्य-साधन से विकल भी नहीं हैं। शंका-तब तो अनुत्पन्नरूप आकाशादि को स्थिति कैसे हो सकेगी ? समाधान-ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि एकांत से हमने अनुत्पन्न गगनादि की स्थिति भी नहीं मानी है। यहां पर तो केवल हमने द्रव्यनय की अपेक्षा से और पर की प्रसिद्धि से ही आकाश का उदाहरण दिया है। इसलिये हमारे यहाँ पूर्वापर विरोध आदि दोष नहीं आते हैं। क्योंकि जो पूर्व में सर्वथा अनुत्पत्तिमान् हैं उनमें स्थिति का प्रतिषेध सिद्ध किया गया है, किन्तु द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से जो अनुत्पद्यमान हैं उसी की स्थिति सुघटित है। 1 कार्यरूपेणासतः। (ब्या० प्र०) 2 श्रीसमन्तभद्राचार्यैः । (ब्या० प्र०) 3 स्याद्वाद्यानुमानं रचयति विवादापन्न सांख्याभ्युपगतं सत्पक्ष: नोत्पत्तुमर्हतीति साध्यो धर्मः सर्वथा सत्त्वात् यत्सर्वथा सत्तन्नोत्पत्तुमर्हति यथा व्योम सर्वथा सच्चेदं तस्मान्नोत्पत्तुमर्हति =विवादापन्नं सौगताभ्युपगतमसत्पक्षउत्पत्तुं नाहतीति साध्यो धर्मः सर्वथाऽसत्त्वात् यत्सर्वथा तदुपत्तुं नार्हति यथा वंध्यासुतः सर्वथाऽसच्चेदं तस्मादुत्पत्तुं नाहति । (दि० प्र०) 4 अ. (ब्या० प्र०) 5 सौगतो वदति हे स्याद्वादिन् ! एतहि उत्पत्तिरहितस्याकाशप्रमुखस्य स्थितिः कथं घटत इत्युक्ते स्याद्वादी वदति । एवं न । गगनादेरे कान्तेनैवानुत्पत्तरस्माभिरनंगीकरणात् = केवलमाकाशादेरनुत्पत्तिमत्त्वमाकाशद्रव्य नयापेक्षया तथापरप्रसिद्धया सांख्यमताश्रयेण । सतोऽनुत्पत्तिमत्वसाधने यथा व्योम इत्युदाहरणं मया प्रतिपादितं न पर्यायनयापेक्षया स्वमताश्रयेण च । ततस्तस्मात्कारणादस्मदृष्टान्ते पूर्वापरविरोधो नास्ति । (दि० प्र०) 6 स्याद्वादिना अनङ्गीकारात् । (ब्या० प्र०) 7 व्योम इति पा० । (दि० प्र०, ब्या० प्र०) 8 शास्त्रापेक्षया । (ब्या० प्र०) 9 सर्वथाऽनुत्पत्तिमतश्च । (दि० प्र०) 10 प्रतिषेधता इति पा० । (दि० प्र०) द्रव्यनयापेक्षयाऽनुत्पद्यमानस्य वस्तुनः पर्यायनयापेक्षया उत्पद्यमानस्य वस्तुनः स्थितिघंटते। सर्वथा नित्यस्य सर्वथा क्षणिकस्य स्थित्यादिक्रिया न घटते । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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