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________________ ३६४ ] अष्टसहस्री [ कारिका २१ विनाशेतरपक्षयोस्तदैकान्ताभावः प्रसज्येत । तस्या निरन्वयविनाशे निष्कारणस्य तथैवोत्पत्तिर्न स्यात् । न हि निराधारोत्पत्तिविपत्तिर्वा', क्रियारूपत्वास्थितिवत् । नैतन्मन्तव्यं' 'नोत्पत्यादिः क्रिया, क्षणिकस्य तदसंभवात् । ततोऽसिद्धो हेतुः' इति, प्रत्यक्षादिविरोधात् । प्रत्यक्षादिविरोधस्तावत्' प्रादुर्भावादिमतश्चक्षुरादिबुद्धौ प्रतिभासनात् तबुध्द्या प्रादुर्भावविनाशावस्थानक्रियारहितसत्तामात्रोपगमस्य बाधनात् । अन्यथा तद्विशिष्टविकल्पोपि मा भूत् । न हि दण्डपुरुषसंबन्धादर्शने दण्डीति विकल्पः स्यात् । तथाविधपूर्वतद्वासनावशात्प्रादुर्भावाद्यदर्शनेपि तद्विशिष्टविकल्प इति चेन्न, नीलसुखादेरदर्शनेपि तद्विकल्पप्रसक्तेः, अर्थात् अपनी उत्पत्ति के पहले अविद्यमान कार्य का सामग्री (अंतर्बाह्यरूप) से जन्म मानें, तो क्या दोष है ? जैन–निरन्वय विनाश और इतर–सर्वथा सत्रूप पक्ष में सदेकांत और असदेकान्त के अभाव का प्रसंग आ जाता है। उस सामग्री का निरन्वय-विनाश स्वीकार करने पर निष्कारण (कारण से रहित) की पूर्वाकार प्रकार से उत्पत्ति नहीं हो सकेगी अथवा उत्पत्ति और विनाश निराधार नहीं हो सकते क्योंकि वे उत्पत्ति और विनाश क्रियारूप हैं, स्थिति के समान जो आप बौद्धों का ऐसा कहना है कि उत्पत्ति आदि क्रियारूप नहीं हैं, क्योंकि क्षणिक में उत्पत्ति आदि असंभव है इसलिये "क्रियारूपत्वात्" यह हेतु असिद्ध है ऐसा भी आपको नहीं मानना चाहिये क्योंकि इस मान्यता में प्रत्यक्षादि से विरोध आता है । प्रत्यक्षादि विरोध क्या है ? उसी को स्पष्ट करते हैं ।। चक्षुरादिबुद्धि-निविकल्पज्ञान में प्रादुर्भावादिमान का प्रत्यक्षादि से विरोध प्रतिभासित हो रहा है क्योंकि उस निर्विकल्पबुद्धि के द्वारा प्रादुर्भाव, विनाश और अवस्थान क्रिया से रहित केवल सत्तामात्र की स्वीकृति बाधित है। अन्यथा उस उत्पत्त्यादि से विशिष्ट विकल्प भी मत होवे क्योंकि दंड और पुरुष इन दोनों के सम्बन्ध को देखे बिना "दंडो' यह विकल्प नहीं हो सकता है। बौद्ध-उस प्रकार की पूर्ववद् वासना के निमित्त से वस्तु में प्रादुर्भावादि-उत्पत्ति आदि से विशिष्ट विकल्पज्ञान हो जाता है । 1 खपुष्पवत् । (दि० प्र०) 2 स्याद्वादी वदति, हे सौगत ! क्षणिकस्वरूपस्य वस्तुनउत्पत्तिविपत्तिस्थितिरूपा क्रिया नास्ति । कस्मात्तस्या उत्पत्त्यादिक्रियाया अघटनात् । यत एव ततस्तस्माक्रियारूपत्वादितिहेतुविरुद्धः । एतत्त्वया न ज्ञातव्यं कुतः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणविरोधो दृश्यते । (दि० प्र०) 3 प्रथमतः प्रादुर्भावविनाशावस्थानादियुक्तस्यार्थस्य प्रत्यक्षादिज्ञाने प्रतिभासनं दृश्यते क्षणिकरूपस्य प्रत्यक्षानुमानाग मेष विरोध इति सर्वथा क्षणिकस्य निराकरणम् = इदानीं सर्वथा नित्यस्य निराकरणं क्रियते प्रादुर्भावादि क्रियारहितं यत्सत्तामात्रं तस्योपगमोंगीकारस्तस्य तद्बुध्या प्रत्यक्षादिज्ञानेन बाधा दृश्यते = अन्यथा प्रादुर्भावादिक्रियारहितसत्तामात्रांगीकरणे सति स्थित्यादियुक्तज्ञानमपि माभूत् । (दि० प्र०) 4 यदि बाधनं न । (व्या० प्र०) 5 क्रिया । (दि० प्र०) 6 क्रियाविशिष्ट प्रतिभासकः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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