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________________ स्याद्वाद अर्थक्रियाकारी है ] प्रथम परिच्छेद [ ३९१ साम्प्रतमव्यवस्थितानेकान्तात्मकं वस्तु सप्तभङ्गी विधिभागर्थक्रियाकारि, न पुनरन्य थेति ' ' स्वपरपक्षसाधनदूषणवचनमुपसंहरन्तः प्राहुः । -- 6 एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । नेति' चेन्न यथा कार्यं बहिरन्तरुपाधिभिः ॥ २१॥ एवं प्रतिपादितनीत्या सप्तभङ्गीविधौ विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितं जीवादि वस्तु सदे - वासदेव वेत्य (व्य ) वस्थितमर्थकृत् कार्यकारि प्रतिपत्तव्यम् । नेति चेदेवं वस्तु "परैरभ्युपगम्यते तर्हि यथाभ्युपगतं कार्यं बहिरन्तरुपाधिभिः सहकार्युपादानकारणैनिर्वर्त्यं तथा न स्यात्, भावाद्येकान्ते'' सर्वथा कार्यप्रतिक्षेपात् । तत एवं व्याख्यानान्तरमुपलक्ष्यते । एवं उत्थानिका -इस समय 'सर्वथा विधिरूप या सर्वथा निषेधरूप से जिसकी एकांत व्यवस्थिति नहीं है, ऐसी अव्यवस्थित एवं अनेकांतात्मक वस्तु ही सप्तभंगी विधि को प्राप्त अर्थक्रियाकारी है किन्तु अन्यरूप से नहीं है इस प्रकार से स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण के वचन का उपसंहार करते हुये श्री समंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं - कारिकार्थ - इस प्रकार से विधि और निषेध के द्वारा अनवस्थित जीवादिवस्तु अर्थक्रियाकारी हैं । यदि ऐसा नहीं मानों तो, जिस प्रकार से बहिरंग अंतरंग उपाधि सहकारी और उपादान कारणों से अनवस्थित रहित कार्य अर्थक्रियाकारी नहीं हैं तथैव सभी जीवादिवस्तु विधि-निषेध से रहित अर्थक्रियाकृत नहीं हो सकेंगी ||२१|| इस प्रकार की प्रतिपादित नीति से सप्तभंगी विधि में विधि-निषेध के द्वारा अनवस्थित जीवादि वस्तु "सत् रूप ही है अथवा असतुरूप ही है" इस प्रकार से अव्यवस्थित अर्थक्रियाकारी हैं, ऐसा समझना चाहिये । यदि परमतावलम्बियों के द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से वस्तु न मानी जावे, तब तो जिस प्रकार से बहिरंग, अंतरंग उपाधिरूप सहकारी और उपादान कारणों से कार्य होते हैं, उस प्रकार से नहीं हो सकेंगे क्योंकि सर्वथा भावादिएकांत में कार्य को मानने का खण्डन किया गया है इसीलिये दूसरे रूप से व्याख्यान किया जाता है । 1 कर्तृभूतम् । (दि० प्र०) 2 सत् । (ब्या० प्र० ) 3 पूर्वोक्तविपर्यासप्रकारेण वस्तु पुनोर्थंकारि न भवति । एकान्ते न सदसज्जीवादि वस्तुकार्यकारि नेति भावः । ( दि० प्र०) 4 प्रतिपादनम् । ( दि० प्र०) 5 समाप्नुवन्तः । ( दि० प्र० ) 6 अस्तित्वनास्तित्वाभ्याम् । व्यवस्थितिरहितमिति कोर्थः कथञ्चिद्विधिप्रतिषेधावस्थितमेव वस्तु अर्थक्रियाकारि भवति । ( दि० प्र०) 7 परैः जटिलादिभिरेवमुक्तप्रकारेण वस्तुनाभ्युपगम्यत इति चेत् । ( दि० प्र० ) 8 वस्तु | ( दि० प्र० ) 9 भवति । ( ब्या० प्र० ) 10 जटिलादिभि: । ( ब्या० प्र० ) 11 नि:पाद्यम् । ( दि० प्र०) 12 सदादि। (ब्या० प्र० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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