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________________ ३८८ ] अष्टसहस्री [ कारिका २० [ को भंगः केन भंगेन सहाविनाभावो विधत्ते ? ] यथैव हि वस्तुनोस्तित्वं नास्तित्वं तदुभयं च प्रतिषेध्येन स्वप्रत्यनीकेनाविनाभावि विशेषणत्वाद्विशेष्यत्वाच्छब्दगोचरत्वाद्वस्तुत्वाच्च- साधर्म्यवद्वधर्म्यवत्क्वचिद्धेतौ 'हेतुत्वेतरत्ववच्च साध्यते तथैव चाऽवक्तव्यत्वं वक्तव्यत्वेन प्राच्यभङ्गत्रयरूपेण, सदवक्तव्यत्वमसदवक्तव्यत्वेनासदवक्तव्यत्वमपि सदवक्तव्यत्वेन, सदसदवक्तव्यत्वमपि पञ्चमषष्ठभङ्गात्मनानुभयावक्तव्यत्वेनाविनाभावि साधनीयं, यथोक्तानां हेतूदाहरणरूपनयानां घटनात् । न चैवं सति किञ्चिद्विप्रतिषिद्धं', अन्यथैव विरोधात । अवक्तव्यत्वादेः स्वप्रत्यनीकस्वभावाविनाभावाभावप्रकारेणैव हि प्रत्यक्षादिविरोधः समनुभूयते, तथा सकृदप्यनुपलम्भात् । तदनेन [ कौन भंग किस भंग के साथ अविनाभाव रखता है ? ] "जिस प्रकार से वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व और उभय धर्म अपने से विरुद्ध प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी हैं, क्योंकि वे विशेषण हैं, विशेष्य हैं, शब्दगोचर हैं और वस्तु हैं जैसे किसी उत्पत्तिमत्त्वादि हेतु में साधर्म्य और वैधर्म्य तथा हेतुत्व और अहेतुत्व सिद्ध होते हैं तथैव अवक्तव्य भी अपने प्रतिषेध्यरूप 'स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति' इन तीन वक्तव्य भंग से अविनाभावी है एवं सत् अवक्तव्यरूप पंचम भंग, असत् अवक्तव्य के साथ तथा 'असत् अवक्तव्य' रूप छठा भंग सत् अवक्तव्य के साथ अविनाभावी हैं । तथैव सातवाँ ‘सदसत् अवक्तव्य' भंग भी पांचवें छठे भंग रूप अनुभय अवक्तव्य के साथ अविनाभावी है। अर्थात् केवल सत् अवक्तव्य और असत् अवक्तव्य ये अनुभय अवक्तव्य कहलाते हैं इनके साथ उभय अवक्तव्य रूप सातवाँ भंग अविनाभावी है। इस प्रकार साधित कर लेना चाहिये। पूर्वोक्त हेतुरूप और उदाहरणरूप नयों को यहाँ पर घटित करना चाहिये। इस प्रकार से प्रत्येक धर्म अपने प्रत्यनीक धर्म के साथ अविनाभावी हैं, ऐसा सिद्ध करने पर कुछ भी विरुद्ध नहीं है, किन्तु अन्यथारूप मानने से ही विरोध है । तथा अवक्तव्यादि भंग अपने प्रत्यनीक स्वभाव के साथ अविनाभावी नहीं हैं इस प्रकार से मानने पर ही प्रत्यक्षादि से विरोध अनुभव में आता है क्योंकि अपने विरोधी धर्म के साथ अविनाभाव के न होने रूप से किसी भी वस्तु की एक बार भी उपलब्धि 1 प्रागुक्तन्यायेन हेतुचतुष्टयं ज्ञातव्यम् । (ब्या० प्र०) 2 अत्रापि सर्वानुमानेषु पूर्वोक्तहेतुदृष्टान्ताः प्रत्येक संबन्धनीयाः। (दि० प्र०) 3 यथा साधर्म्य वैधयेणाविनाभावि । (ब्या० प्र०) 4 प्रधानभावापितहेतुत्वे नरद्वय यथा प्रधानभूतकैकाविनाभावि । (दि० प्र०) 5 इमे सर्वेऽपि हेतुदृष्टान्ताऽनुमानत्रयेपि प्रत्येक सम्बन्धनीयाः । (दि० प्र०) 6 सप्तमो भंगः । (दि० प्र०) 7 वस्तुनोऽस्तित्वादी धर्म स्वप्रत्यनीकेन प्रतिषिद्धयन नास्तित्वादिना धर्मणाविनाभाविनि सति किञ्चित् विप्रतिषिद्धं निषद्धं न च । (दि० प्र०) 8 कदाचनापि । (ब्या० प्र०) वस्तुनोऽवक्तव्यत्वादिधर्मस्य स्वप्रतिषेद्धयाविनाभावित्वरहितस्य कदाचिददर्शनात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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