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________________ ३७६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १८ व्यवहारः संकीर्येत, सर्वस्य सर्वथा सद्भावात् । यदि पुनर्दधनि स्वरूपेण दधित्वं न करभरूपेण करभे च स्वरूपेण करभत्वं न दधिरूपेण यतः प्रवृत्त्यादिव्यवहारसंकरः प्रसज्येतेति' मतं तदा सिद्धं दधित्वमदधित्वेन प्रतिषेध्येनाविनाभावि करभत्वं चाकरभत्वाविनाभावि, तद्वत्तत्सर्वं विशेषणं स्वप्रतिषेध्येनाविनाभावि । इति सिद्धान्यथानुपपत्तिः, विपक्षे बाधकसद्भावात् । [ हेतोरन्यथानुपपत्तिसिद्धायां धर्ममिव्यवस्थाकल्पितैव अनुमानस्य कल्पितत्वात् ततः कथं समंजसमित्यारेकायामुत्तरं] न हि स्वेच्छाप्रक्लप्तधर्ममिव्यवस्थायां परमार्थावतारः स्यात, यतः सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्धयारूढेन धर्ममिन्यायेन बहिः: सदसत्त्वमपेक्षते इति युक्तं भवेत् । तदसमीक्षिततत्त्वार्थैर्लोकप्रतीतिवशाभदाभेदव्यवस्थितिस्तत्त्वप्रतिपत्तये समा के अनुसार तो यही सिद्ध होता है कि दधि अदधिरूप अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी है और करभ अपने अकरभ-नास्तित्व के साथ अविनाभावी है, उसी प्रकार से वे सभी विशेषण-नास्तित्व आदि अपने-अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभावी हैं । इस प्रकार से "नास्तित्व अस्तित्व के साथ अविनाभावी है, क्योंकि विशेषणत्व की अन्यथानुपपत्ति है।" इस हेतु की “अन्यथानुपपत्ति" सिद्ध हो गई क्योंकि साध्य रहित खपुष्परूप विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव है। [ हेतु की अन्यथानुपपत्ति के सिद्ध हो जाने पर भी धर्म-धर्मी की व्यवस्था कल्पित ही है, क्योंकि अनुमान भी कल्पित है तब समञ्जसपना कैसे हो सकेगा? इस प्रकार से बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं ] धर्म और धर्मी की व्यवस्था को स्वेच्छा से कल्पितरूप मानने पर वास्तविकता का अवतरण नहीं हो सकेगा जिससे कि यह सभी अनुमान-अनुमेय व्यवहारबुद्धि से आरूढ़ धर्म-धर्मी के न्याय से बाह्य में सत्त्व, असत्त्व की अपेक्षा करता है, यह कथन युक्त हो सके। अर्थात् उपर्युक्त यह कथन अयुक्त ही है। बौद्ध-इसलिये 'असमीक्षित तत्त्वार्थ (बिना विचारे ही तत्त्वों को मानने वाले) आप जैन 1 तव सांख्यस्य मतम् । (ब्या० प्र०) 2 स्वरुचिविरचितगुणगुणिस्थापनायां सत्यावतारः स्यात् । परवादिना इत्युक्ते स्याद्वादी आह एवं नहि। (दि० प्र०) 3 कल्पित । (ब्या० प्र०) 4 क्षणिकत्व । (ब्या० प्र०) 5 कल्पितेन । (ब्या० प्र०) 6 अत्र सौगत आह अयं धर्मोयं धर्मी तयोर्यायोर्गिः बुद्धयारूढ़: न सत्यभूतस्तेन बहिर्घटपटादिष इदं सत्त्वं इदमसत्त्वं मा श्रीयत इति हेतोरयं सकल एवानुमानानुमेयव्यवहारः यतः कुतः युक्तो भवेदपितु न कुतोपि । (दि० प्र०) 7 प्रवर्तते। (दि० प्र०) 8 नव कुतः । (दि० प्र०) 9 धर्ममि । (दि० प्र०) 10 क्षणिकत्व । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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