SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १७ नुषङ्गः । तथा च प्रमेयतदभावव्यवस्था कथमास्थीयेत' ? एतेन खपुष्पादयः प्रमेयाः शब्दविकल्पविषयत्वाद्धटादिवदित्यनुमानं प्रत्युक्तं, हेतोः प्रमेयाभावेन व्यभिचारात् । प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रमीयमाणत्वात्प्रमेयाः' खपुष्पादय इति चेन्न, असिद्धत्वात्साधनस्य । तथा हि । ते न प्रत्यक्षेण प्रमीयमाणाः, तत्र स्वाकारानपकत्वात् । नाप्यनुमानेन', 'स्वभावकार्यप्रतिबन्धाभावात् । स्वभावेन केनचित्तेषां प्रतिबन्धे निस्स्वभावत्वविरोधात्, कार्येण च प्रतिबन्धेऽनर्थ तथा जिस प्रकार "स्वलक्षण अनिर्देश्य है, प्रत्यक्ष कल्पनापोढ़ है" इस प्रकार से स्वलक्षण में अनिर्देश्यता और प्रत्यक्ष में कल्पनापोढ़ता मानने पर भी 'स्वलक्षण अनिर्देश्य है, प्रत्यक्ष कल्पनापोढ़ है' इत्यादि व्यवहार होता है इसमें कुछ भी विरोध नहीं है, उसी प्रकार "खपुष्पादयोऽप्रमेया" इस प्रकार का खपुष्पादि में व्यवहार होने पर भी उसमें अप्रमेयता का कुछ भी विरोध नहीं है । बौद्ध-'स्वलक्षण अनिर्देश्य है' फिर भी अनिर्देश्य शब्द के द्वारा उसका निर्देश करने में कोई विरोध नहीं है और प्रत्यक्ष कल्पनापोढ़ है फिर भी कल्पनापोढ़ त्वरूप से कल्पित करने पर भी कुछ भी विरोध नहीं है, अन्यथा सर्वथा अनिर्देश्यत्व कल्पनापोढ़त्व व्यवहार के लोप का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। जैन-उसी प्रकार से आकाश पुष्पादिक अप्रमेय हैं, ऐसा कहते हुये भी हम जैन के यहाँ उनका अप्रमेयत्व विरुद्ध नहीं है, क्योंकि आकाश पुष्प के ज्ञान में प्रमाण का अभाव है प्रमेयाभाव के समान । उस प्रमाण के अभाव में भी आकाश पुष्पादि को प्रमेय मानने पर प्रमेय के अभाव को भी प्रमेयत्व का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा पुन: इस प्रकार से प्रमेय और प्रमेयाभाव की व्यवस्था भी कैसे स्थिर हो सकेगी? इसी कथन से... "खपुष्पादि प्रमेय हैं क्योंकि वे शब्द और विकल्पज्ञान के विषय हैं घटादि के समान।" बौद्ध के इस अनुमान का भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये । क्योंकि हेतु में प्रमेयाभाव से व्यभिचार आता है । अर्थात् प्रमेयाभाव शब्द और विकल्पज्ञान का विषय होने पर भी प्रमेयत्वाभावरूप है। 1 अभ्युपगम्येत । अयं प्रमेयः अयमप्रमेय इति स्थितिः कथं व्यवह्रियेत अपितु न । (दि० प्र०) 2 निराकृतम् । (दि० प्र०) 3 हे सौगत ! शब्दविकल्पविषयत्वादिति हेतोः साधनस्य प्रमेयाभावे न व्यभिचारोस्ति । कथं प्रमेयाभावः पक्ष: प्रमेयो भवतीति साध्यो धर्मः। शब्दविकल्पविषयत्वाद्धेतुः । (दि० प्र०) 4 परिच्छिद्यमानत्वात् । (व्या० प्र०) 5 प्रत्यक्षानुमानाभ्यां प्रमीयमाणत्वादिति हेतुरसिद्धः । (दि० प्र०) 6 अनुमानेनापि ते खपुष्पादयः प्रमेया न भवन्ति स्वभावलिङ्गकार्यलिङ्गसम्बन्धाघटनात् = प्रमीयमाणा इति सम्बन्धः। (दि० प्र०) 7 ता । तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धः। सम्बन्धाभावात् । (दि० प्र०) 8 तेषां खपुष्पादीनां केनचित्स्वभावलिङ्गन व्याप्ती सत्यां स्वरूपसत्त्वमायाति । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy